"ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥"

Thursday, July 28, 2011

"पार्थिव में बसे शिव कल्याणकारी"

शिव सनातन देव हैं।दुनियां में जितने भी धर्म है वे किसी न किसी रूप या नाम से शिव की ही अराधना करते है।ये कही गुरू रूप में पूज्य है तो कही निर्गुण,निराकार रूप में।शिव बस एक ही हैं पर लीला वश कइ रूपों में प्रकट होकर जगत का कल्याण करते हैं।शक्ति इनकी क्रिया शक्ति है।सृष्टि में जब कुछ नहीं था तब सृजन हेतु शिव की शक्ति को साकार रूप धारण करना पड़ा और शिव भी साकार रूप में आ पाये इसलिए ये दोनों एक ही हैं।भेद लीला वश होता है।और इसका कारण तो ये ही जानते हैं क्योकिं इनके रहस्य को कोई भी जान नहीं सकता और जो इनकी कृपा से कुछ जान गये उन्होनें कुछ कहा ही नहीं,सभी मौन रह गए।शिव भोले औघड़दानी है इसलिए दाता है सबको कुछ न कुछ देते है,देना उनको बहुत प्रिय है।ये भाव प्रधान देव है,भक्ति से प्रसन्न हो जाते है,तभी तो ये महादेव कहलाते है।
-:मेरा अनुभव:-
बात उन दिनों की है जब मै जीवन में साधना क्षेत्र के प्रथम पड़ाव पर संघर्ष कर रहा था,हनुमान जी तथा माता की उपासना हो रही थी परन्तु शिव के लिए बेचैनी हो जाती थी।कारण महादेव मुझे बहुत प्यारे लगते थे।कुछ साधक कहते शक्ति उपासक तो शिव के समान होते है,शिव तो काली के पैरो में पड़े रहते है,शक्ति उपासक को शिव से क्या लेना देना,यह बात सुन मैं पीड़ा से कराह उठता और लोगों से झगड़ पड़ता,कारण शिव की निन्दा सुनते मुझमें महान कोप पैदा हो जाता और लगता कि शिव के निन्दक को मै क्या करूं।शिव नहीं तो सृष्टि नहीं,सती ने शिव के अपमान के चलते ही तो दक्ष के यहाँ खुद को अग्नि में समर्पित कर दिया।यह है शिव शक्ति का प्रेम,क्या ये दोनों अलग हो सकते है?शिव ने ही मुझे स्वप्न में मंत्र दिया था।पर क्या शिव के बिना मैं साधना क्षेत्र में मन लगा पाऊँगा।तभी एक दिन बहुत मर्माहत था और सोचा जीना ही बेकार है सत्य के मार्ग पर चलना कितना कष्टकारी है,अब सहना बेकार है,उस रात मैंने सोच लिया था कि जीवन का अन्त कर लूंगा,लेकिन मेरी निराशा,मेरी विवशता शिव से छुप न सका।मेरे लाख चाहने पर भी मुझे नींद ने अपने आगोश मे ले लिया,तभी स्वप्न में शिव को शक्ति के साथ देखा।शिव ने मुझसे कहा क्या करने जा रहे थे,मैंने अपनी वेदना व्यक्त कि तो बोले कि हम सदा तेरे साथ है,फिर भी तुने मृत्यु की कामना क्यों की।देखो अपने प्रारब्ध को काटना पड़ता है तभी जाकर तुम जीवन को समझ पाओगे,आज से तुम्हारे कष्ट मैं कम कर रहा हूँ एक समय आयेगा जब तुमको सब कुछ मिल जायेगा साथ ही जगत के बहुत रहस्य से परिचित हो जाओगे,साथ ही अष्टभुजी माँ दुर्गा ने भी मुझसे कुछ कहा,तभी नींद से बाहर आया और आज तक फिर कोई निराशा मुझे छू नहीं पाया।
मैं आज यहाँ पार्थिव पूजन की विधि दे रहा हूँ इसे कोई भी कम समय में कर शिव की कृपा प्राप्त कर सकता है।शिव सबके अराध्य है एक बार भी दिल से कोई बस कहे "ॐ नमः शिवाय" फिर शिव भक्त के पास क्षण भर में चले आते है। 
-:पार्थिव शिव लिंग पूजा विधि:-
पार्थिव शिवलिंग पूजन से सभी कामनाओं की पूर्ति होती है।इस पूजन को कोई भी स्वयं कर सकता है।ग्रह अनिष्ट प्रभाव हो या अन्य कामना की पूर्ति सभी कुछ इस पूजन से प्राप्त हो जाता है।सर्व प्रथम किसी पवित्र स्थान पर पुर्वाभिमुख या उतराभिमुख ऊनी आसन पर बैठकर गणेश स्मरण आचमन,प्राणायाम पवित्रिकरण करके संकल्प करें।दायें हाथ में जल,अक्षत,सुपारी,पान का पता पर एक द्रव्य के साथ निम्न संकल्प करें।
-:संकल्प:-
"ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः श्री मद् भगवतो महा पुरूषस्य विष्णोराज्ञया पर्वतमानस्य अद्य ब्रह्मणोऽहनि द्वितिये परार्धे श्री श्वेतवाराह कल्पे वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशति तमे कलियुगे कलि प्रथमचरणे भारतवर्षे भरतखण्डे जम्बूद्वीपे आर्यावर्तेक देशान्तर्गते बौद्धावतारे अमुक नामनि संवत सरे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुक तिथौ अमुकवासरे अमुक नक्षत्रे शेषेशु ग्रहेषु यथा यथा राशि स्थानेषु स्थितेषु सत्सु एवं ग्रह गुणगण विशेषण विशिष्टायां अमुक गोत्रोत्पन्नोऽमुक नामाहं मम कायिक वाचिक,मानसिक ज्ञाताज्ञात सकल दोष परिहार्थं श्रुति स्मृति पुराणोक्त फल प्राप्तयर्थं श्री मन्महा महामृत्युञ्जय शिव प्रीत्यर्थं सकल कामना सिद्धयर्थं शिव पार्थिवेश्वर शिवलिगं पूजनमह करिष्ये।"


तत्पश्चात त्रिपुण्ड और रूद्राक्ष माला धारण करे और शुद्ध की हुई मिट्टी इस मंत्र से अभिमंत्रित करे...
"ॐ ह्रीं मृतिकायै नमः।"
फिर "वं"मंत्र का उच्चारण करते हुए मिटी् में जल डालकर "ॐ वामदेवाय नमःइस मंत्र से मिलाए।
१.ॐ हराय नमः,
२.ॐ मृडाय नमः,
३.ॐ महेश्वराय नमः बोलते हुए शिवलिंग,माता पार्वती,गणेश,कार्तिक,एकादश रूद्र का निर्माण करे।अब पीतल,तांबा या चांदी की थाली या बेल पत्र,केला पता पर यह मंत्र बोल स्थापित करे,
ॐ शूलपाणये नमः।
अब "ॐ"से तीन बार प्राणायाम कर न्यास करे।
-:संक्षिप्त न्यास विधि:-
विनियोगः-
ॐ अस्य श्री शिव पञ्चाक्षर मंत्रस्य वामदेव ऋषि अनुष्टुप छन्दःश्री सदाशिवो देवता ॐ बीजं नमःशक्तिःशिवाय कीलकम मम साम्ब सदाशिव प्रीत्यर्थें न्यासे विनियोगः।
ऋष्यादिन्यासः-
ॐ वामदेव ऋषये नमः शिरसि।ॐ अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे।ॐ साम्बसदाशिव देवतायै नमः हृदये।ॐ ॐ बीजाय नमः गुह्ये।ॐ नमः शक्तये नमः पादयोः।ॐ शिवाय कीलकाय नमः नाभौ।ॐ विनियोगाय नमः सर्वांगे।
शिव पंचमुख न्यासः ॐ नं तत्पुरूषाय नमः हृदये।ॐ मम् अघोराय नमःपादयोः।ॐ शिं सद्योजाताय नमः गुह्ये।ॐ वां वामदेवाय नमः मस्तके।ॐ यम् ईशानाय नमःमुखे।
कर न्यासः-
ॐ ॐ अंगुष्ठाभ्यां नमः।ॐ नं तर्जनीभ्यां नमः।ॐ मं मध्यमाभ्यां नमः।ॐ शिं अनामिकाभ्यां नमः।ॐ वां कनिष्टिकाभ्यां नमः।ॐ यं करतलकर पृष्ठाभ्यां नमः।
हृदयादिन्यासः-
ॐ ॐ हृदयाय नमः।ॐ नं शिरसे स्वाहा।ॐ मं शिखायै वषट्।ॐ शिं कवचाय हुम।ॐ वाँ नेत्रत्रयाय वौषट्।ॐ यं अस्त्राय फट्।
                                                      "ध्यानम्"
ध्यायेनित्यम महेशं रजतगिरि निभं चारू चन्द्रावतंसं,रत्ना कल्पोज्जवलागं परशुमृग बराभीति हस्तं प्रसन्नम।
पदमासीनं समन्तात् स्तुतम मरगणै वर्याघ्र कृतिं वसानं,विश्वाधं विश्ववन्धं निखिल भय हरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम्।
-:प्राण प्रतिष्ठा विधिः-
विनियोगः- 
ॐ अस्य श्री प्राण प्रतिष्ठा मन्त्रस्य ब्रह्मा विष्णु महेश्वरा ऋषयःऋञ्यजुःसामानिच्छन्दांसि प्राणख्या देवता आं बीजम् ह्रीं शक्तिः कौं कीलकं देव प्राण प्रतिष्ठापने विनियोगः।
ऋष्यादिन्यासः-
ॐ ब्रह्मा विष्णु रूद्र ऋषिभ्यो नमः शिरसि।ॐ ऋग्यजुः सामच्छन्दोभ्यो नमःमुखे।ॐ प्राणाख्य देवतायै नमःहृदये।ॐआं बीजाय नमःगुह्ये।ॐह्रीं शक्तये नमः पादयोः।ॐ क्रौं कीलकाय नमः नाभौ।ॐ विनियोगाय नमःसर्वांगे। अब न्यास के बाद एक पुष्प या बेलपत्र से शिवलिंग का स्पर्श करते हुए प्राणप्रतिष्ठा मंत्र बोलें।
प्राणप्रतिष्ठा मंत्रः-
ॐ आं ह्रीं क्रौं यं रं लं वं शं षं सं हं शिवस्य प्राणा इह प्राणाःॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं शिवस्य जीव इह स्थितः।ॐ आं ह्रीं क्रौं यं रं लं वं शं षं सं हं शिवस्य सर्वेन्द्रियाणि,वाङ् मनस्त्वक् चक्षुः श्रोत्र जिह्वा घ्राण पाणिपाद पायूपस्थानि इहागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा।अब नीचे के मंत्र से आवाहन करें।
आवाहन मंत्रः-
ॐ भूः पुरूषं साम्ब सदाशिवमावाहयामि,ॐ भुवः पुरूषं साम्बसदाशिवमावाहयामि,ॐ स्वः पुरूषं साम्बसदाशिवमावाहयामि।अब शिद्ध जल,मधु,गो घृत,शक्कर,हल्दीचूर्ण,रोड़ीचंदन,जायफल,गुलाबजल,दही,एक,एक कर स्नान कराये",नमःशिवाय"मंत्र का जप करता रहे,फिर चंदन, भस्म,अभ्रक,पुष्प,भांग,धतुर,बेलपत्र से श्रृंगार कर नैवेद्य अर्पण करें तथा मंत्र जप या स्तोत्र का पाठ,भजन करें।अंत में कपूर का आरती दिखा क्षमा प्रार्थना का मनोकामना निवेदन कर अक्षत लेकर निम्न मंत्र से विसर्जन करे,फिर पार्थिव को नदी,कुआँ,या तालाब में प्रवाहित करें।
विसर्जन मंत्रः-
गच्छ गच्छ गुहम गच्छ स्वस्थान महेश्वर पूजा अर्चना काले पुनरगमनाय च।   

Friday, July 15, 2011

"गुरु महिमा"..........(सद्गुरुओं का सान्निध्य)

"गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः।गुरू साक्षात् परंब्रह्म तस्मै श्री गुरूवे नमः॥"
गुरू वंदना के लिए बहुत ही प्रसिद्ध यह स्तुति शिष्य के लिए बड़ा प्यारा है तथा इस वंदना का अपने समझ से मैने अर्थ एवं विवेचना किया है,जो मेरे जीवन में अनूभुत है।
-:गुरु स्तुति:-
 "अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः॥
       अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया।चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः॥
       गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः।गुरू साक्षात परंब्रह्म तस्मै श्री गुरूवे नमः॥
       स्थावरं जंगमं व्याप्तं यत्किञ्चित् सचराचरम् ।तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः॥
       चिन्मयं व्यापितं सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् ।तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥
       सर्वश्रुति शिरोरत्न विराजित पदाम्बुजः।वेदान्ताम्बुज सूर्याय तस्मै श्री गुरवे नमः॥
       चैतन्य शाश्वतं शान्तं व्योमातीतं निञ्जनः।बिन्दु नाद कलातीतःतस्मै श्री गुरवे नमः॥
       ज्ञानशक्ति समारूढःतत्त्व माला विभूषितम्।भुक्ति मुक्ति प्रदाता च तस्मै श्री गुरवे नमः॥
       अनेक जन्म सम्प्राप्त कर्म बन्ध विदाहिने।आत्मज्ञान प्रदानेन तस्मै श्री गुरवे नमः॥
       शोषणं भव सिन्धोश्च ज्ञापनं सार संपदः।गुरोर्पादोदकं सम्यक् तस्मै श्री गुरवे नमः॥
       न गुरोरधिकं त्तत्वं न गुरोरधिकं तपः।तत्त्व ज्ञानात् परं नास्ति तस्मै श्री गुरवे नमः॥
       ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोर्पदम् ।मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोर्कृपा॥
      ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं।द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्षयम्॥
      एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं।भावातीतं त्रिगुणरहितं सद् गुरूं तन्नमामि॥
       अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥
      ध्यानं सत्यं पूजा सत्यं सत्यं देवो निरञ्जनम्।गुरिर्वाक्यं सदा सत्यं सत्यं देव उमापतिः॥"
     -:अर्थ और विवेचना:-          
इस गुरू वंदना में गुरू के स्वरूप,शक्ति,सृजन और महत्व का सूक्ष्म रहस्य छिपा हैं।गुरू,ब्रह्मा है,गुरू विष्णु है,गुरूदेव महेश्वर है।गुरू साक्षात परम ब्रह्म है,उनको नमस्कार है।गुरू ब्रह्मा क्यों है?कारण कई जन्मों के बुरे संस्कारों से हमारे अन्दर बहुत सा विकार पैदा हो गया है।हम दैविक मार्ग पर चलेंगे,क्या उसके लिए हमारा शरीर,मन,बुद्धि तैयार है या नहीं।हम उस रास्ते चलेंगे जो सुनने में आसान लगता है लेकिन जब उस पर चलेंगे तो  ऐसा प्रतीत होगा कि बहुत ही कठिन एवं दुर्गम रास्ता है।इस कारण से गुरू को भी ब्रह्मा के जैसे ही हमारे अंदर के विकार और गन्दगी को हटाकर बुद्धि को शुद्ध कर हमारे बिगड़े संस्कार को ठीक करना पड़ता है।यानि साधना,संयम,योग,जप द्वारा गुरू हमे चलने लायक बना देते है।गुरू विष्णु के जैसे हमारा पालन करेंगे वरना हम भौतिक कष्ट से मर्माहत होकर साधना क्या कर पायेंगे।कोइ भी साधक या संत हो भले ही वो त्यागी हो फिर भी जरूरत की चीज मिल जाये और किसी के सामने शर्म से सिर झुकाकर भिक्षा या दान न मांगना पड़े।इसके लिए गुरू बिष्णु जैसा बनकर साधना,मंत्र,तंत्र द्वारा या वर,आशिर्वाद देकर उस लायक बना देते है कि सब कुछ स्वतः प्राप्त होता रहे।गुरू विष्णु के समान है जब चाहे भक्त,साधक को पुष्ट बना दें ताकि उसे साधना मार्ग में कभी भी भौतिक विघ्न न सताये।गुरू महेश्वर यानि शिव है जिनके पास सारी शक्तियां विद्यमान है परन्तु दाता होते हुए भी कोई दिखावा नहीं है।वो सबका मालिक है।गुरू का यह रूप सदाशिव सदगुरू बनकर साधक और भक्त को दिव्य शक्ति प्रदान करवाते है।यहाँ जो भी करते हैं,गुरू ही करते है।कारण कैसी साधना,कौन सा मंत्र या क्या करना है यह गुरू कृपा से ही प्रदान होती है।ये अपने शिष्य को जगत के सारे रहस्य से परिचित कराके स्वयं और शक्ति की लीला का साक्षात्कार कराने के साथ ही आत्म दर्शन द्वारा साकार परमात्मा के परम ब्रह्म का ज्ञान कराते है।साकार,निराकार सब कुछ समझ में आ जाता हैं और अंत में जो बचता है वही सबका मालिक एक है,जो साईबाबा कहते है।
"श्री स्वामी जी"



-:जीवन प्रसंग:-
इस वंदना का अर्थ २५ वर्ष पहले समझ में न आता था।लेकिन बचपन में अपने पिताजी की बात जो अक्सर मेरे बारे में कहते थे कि इस पर पूर्व संस्कार के कारण माता की कृपा रही है।जीवन के २२वें वर्ष में ही मुझे किसी दिव्य गुरू के लिए व्याकुलता बढ गई।कितने छोटे बड़े साधको से मिला परन्तु किसी पर वह विश्वास नहीं जग पाया।बचपन से एक बात मेरे अंदर रही है कभी भी गलत चीज,गलत लोग,गलत खानपान मुझपर सूट ही नहीं करते है।यही कारण था कि लोगों से सुनकर या पत्रिका पढ़कर किसी अमुक गुरु से प्रभावित होकर उनके पास गया जरूर लेकिन जाते ही मुझे बेचैनी होती और मैं समझ जाता ये मेरे गुरू नहीं है।बचपन से हमेशा मुझे दिव्य स्वप्न आते,पर क्या मतलब है इसका समझ नहीं पाता।फिर दुखी होकर एक दिन शिव का जप करने बैठा इस संकल्प के साथ की या तो गुरू मिलेंगे या प्राण जायेगी आज मेरी।ऐसी व्याकुलता की स्थिती में शिव ने मुझे दर्शन दिया पर वह ध्यानावस्था में था या जाग्रत पता नहीं साथ ही दीक्षा भी दिये और आगे की घटना का दृश्य दिखाया।जब बचपन में हनुमत पूजन करता तो मन बड़ा प्रसन्न रहता लेकिन एक बार बहुत बीमार होने के बाद हनुमत पूजन छूट गया।बाद में निरंतर माता का बृहद पुजन करता रहा फिर भी संकट आती रही।तभी मुझे एक दिव्य स्त्री साधिका जो संन्यासनी थी से भेंट हो गई।उन्होनें देखते ही बताया कि तुम्हारे कुलदेव है हनुमान जी और उनकी विशेष कृपा है तुमपर लेकिन उन्हें छोड़ माता का पूजन तुम्हें कैसे लाभ देगा।तुम पहले हनुमान जी को पकड़ो वही तुम्हारे परम सहायक है,आगे किस रास्ते कैसे बढना है ये हनुमान जी जानते है।मैं साधिका की बात को समझ हनुमान जी की शरण में गया और मेरा जीवन ही बदल गया।


"श्री सीताराम जी"
हनुमत कृपा से उसी समय माँ के परम भक्त श्री दुर्गा प्रसाद जी मिले।वे ज्योतिष के प्रकांड विद्वान भी थे,जिन्होने मुझे ज्योतिष का अदभुत ज्ञान प्रदान किया साथ ही मेरे अन्दर की बेचैनी को समझते हुये मुझे एक परम शाक्त काली उपासक से मिलवाये।उन्हें देखते ही शिव जी के गोपनीय आदेश का स्मरण हो आया और मैं समझ गया कि ये गुरुजी ही ब्रह्मा के जैसे मेरा शोधन करेंगे,मेरे विकार नष्ट कर मुझे आगे बढायेंगे।११ वर्ष तक औघड़ गुरू जी के सान्निध्य में रहते हुये मैने साधना के साथ माँ की कितनी लीलाएँ देखी,याद कर मन भर आता हैं।उसी बीच दतिया गुरू जी "श्री स्वामी जी" का दर्शन स्वप्न में अक्सर होता रहा।औघड़ गुरू जी के समाधि के एक वर्ष पूर्व ही माता ने मुझे स्वप्न में उस रहस्य से परिचय करवाया कि "गुरू जी समाधि ले रहे है।"मन भर गया मेरा धड़कन बढने लगा यह सोचकर कि गुरू जी के बिना कैसे रह पाउँगा मै।मैने औघड़ गुरू जी से कहा "गुरूदेव क्या आप जाने के तैयारी में है" उस समय उनके समक्ष बहुत से शिष्य लोग भी बैठे थे।मेरा बात सुन गुरूजी बोले देखो जाना तो है ही परन्तु तुम मत घबड़ाओ माँ तेरे साथ है,यह बात सुन सारे शिष्य लोग मुझपर नाराज हो गये कि मैं गुरू देव की मृत्यु की कामना कर रहा हूँ।आठ माह बाद एक रोज गुरूदेव नें मुझे बुलाकर कहा देखो माँ ने कहा है कि तुम सात्वीक आचार के साथ ही पूजन करना तथा उसी समय गुरूदेव ने अपनी सारी साधनायें,तंत्र प्रयोग,मंत्र साधना सभी का एक एक कर मुझे दीक्षा प्रदान किया और कहा मेरे बाद माँ का पूजन,देखभाल करना।मैं तो भावविभोर हो रोने लगा और ठीक चार माह बाद गुरूजी ने समाधि ले ली।मैं तो जैसे पागल हो गया,मुझे इतना सदमा लगा कि मैं हमेशा शोक में डूबा रहता,कैसे रह पाउँगा गुरूदेव आपके बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता।गुरूदेव के शिष्य लोग तो पहले से ही मुझसे नाराज रहते थे,अब खुल कर मेरा विरोध करने लगे।तब गुरूजी ने स्वप्न के माध्यम से बहुत से शिष्य लोगों को यह बताया "देखो माँ का पूजन राज शिवम ही करेगा यह माँ का आदेश है,इसे मान लो तथा तुम सब उससे बैर भाव छोड़ सहायक बनो।" इस स्वप्न के बाद भी किसी ने गुरू जी की बात नहीं मानी।तभी एक रात गुरूजी स्वप्न में मुझे माँ के पास ले गये और बोले देखो कोई तुम्हें चैन से नहीं रहने देंगा इसलिए माँ की प्रतिष्ठा तुम अपने यहाँ करो।मैं डर गया तो वे बोले "कि पागल माँ के लिए रोते हो,डर कैसा माँ की ईच्छा है,और गुरू जी माँ के प्रतिमा को मेरे यहाँ पूजा रूम में रखते हुये बोले कि शीघ्र ही माता का कही प्रतिष्ठा करो।" मैं पूजा रूम में गया तो देखता हूँ माँ साक्षात खड़ी हैं,मैंने कुछ कहा,माँ ने भी कुछ कहा फिर मैंने कहा "माँ! तुम यही रहो मैं तुम्हारी प्रतिष्ठा करने का यत्न करता हूँ।" कहाँ जाऊं कैसे माँ का प्रतिष्ठा करूं मैं तो खुद किराये के मकान में हूँ।यह सोचता हुआ बाहर आकर मैं रोने लगा कि गुरूजी घर में बैठे है और माँ पूजा रूम में पर धन कहाँ से लाऊँ।उसी रात स्वप्न में मुझे एक गुफा का दरवाजा दिखाई दिया।किसी ने आकर मुझसे कहा की अन्दर शिरडी साईबाबा है,उन से भेंट करो।मैं अन्दर गया ३५,४० की उम्र में साई सफेद धोती,कुर्ता में एक बड़े से पत्थर के शिला पर बैठे है।मैं उन्हें देखते ही रोने लगा और कहने लगा "कि बड़ा नाम सुना हैं आपका,कैसे माँ का प्रतिष्ठा करूँ बाबा,मैंने तो कभी आपका पूजन भी नहीं किया साईं,बताईये कहाँ जाऊं।" तब साई मेरे सिर पर हाथ रख कुछ गोपनीय वचन बोले तथा कुछ दिव्य समान भी दिये साथ ही बोले चिन्ता न करो माँ का प्रतिष्ठा मैं करवा दूँगा,सारी व्यवस्था मैं कर दूँगा,मैं गुफा से बाहर आया तो एक १२,१३ वर्ष की कन्या नें कहा आपका खुद का जो जमीन हैं न,वही माँ का प्रतिष्ठा करे।तभी नींद टूट गई।मैने गुरू के विष्णु रूप साईंबाबा का कृपा देखा।स्वप्न क्या यह पूरा हो गया और देखते ही मेरे जमीन पर निर्माण कार्य भी शुरू हो गया।तभी पुनः दतिया के
"श्रीस्वामी" ने आदेश दिया "आओ दीक्षा दूँ तुम्हें।" मैं दतिया गया पता चला नवरात्र में दीक्षा होगा परन्तु मेरा दीक्षा निवेदन पत्र १० माह पहले का है जबकि चार,पाँच वर्षो वालों का भी दीक्षा नहीं हो पाया है।उस समय मैं थोड़ा आलस से टाल कर कर वापस घर आ गया।
"श्री विष्णुकान्त मुरिया जी"

श्री स्वामी साक्षात शिव है,यह मैं जान गया था तभी एक ऐसा घटना घटा जिससे की मैं डर गया और उस संकट के निवारण के लिए स्वामी से प्रार्थना की "गुरूदेव मैं इसी नवरात्र में आऊंगा दतिया,कृपा कर संकट से मुक्त किजिए" और मानों चमत्कार हो गया और संकट पल भर में छूमंतर हो गया।मैने शिव की लीला भी देखी कि कैसे शिष्य को आगे के मार्ग पर बढाने के लिए गुरू को कठोर बनना पड़ता है,यही शिव की परम कृपा,एवं करूणा है।इस घटना के पिछे मेरी प्यारी काली भुवनेश्वरी माँ का मेरे लिए विशेष कृपा,स्नेह भी छिपा हुआ था।मै दतिया नवरात्र में पहुँच गया,वहाँ जाकर श्रीस्वामी के पास रो पड़ा,गुरूदेव आ गया हूँ दीक्षा दे।फिर किसी के कहने पर "श्रीविष्णु कान्त मुरिया जी" से मिला और उनकी कृपा मिली और मुझे उसी दिन दीक्षा प्राप्त हो गयी।यह सब स्वामी कृपा से संभव हो सका।श्री मुरिया जी को प्रथम बार देखा तो पाँच वर्ष पूर्व का घटना याद आ गया जब मैंने देखा था कि गुरूदेव के प्रिय शिष्य मुझे उपदेश दे रहे थे। ये परम दयालु तथा अति विशिष्ट साधक है,इन्होने मुझे जो स्नेह दिया,मार्गदर्शन किया वह मैं स्मरण कर भाव विह्वल हो जाता हूँ।


मैं शुरू से बहुत अनुशासित हूँ तथा गुरू कृपा मैंने जीवन में इतनी देखी है,कि लिखूँ तो आजीवन लिखता ही रह जाऊँगा।जीवन में प्रथम गुरू कृपा मैने हनुमान जी का देखा,मेरे जीवन को बनाने वाले हनुमान जी ही है,उनकी मुझपर सदा कृपा रही।कारण शिव मंत्र मुझे हनुमान जी ही प्रदान किये।शिव आये तो औघड़ गुरू जी श्री सीताराम जी मिले फिर साईंबाबा जो साक्षात ब्रह्मा,विष्णु,महेश ही है,यही श्री दत्तात्रेय,स्वामी समर्थ भी है,इनकी कृपा मिली फिर आदि गुरू शिव जो पहले भी मिले और स्वामी के रूप में दतिया बुला मेरा जीवन ही बदल डाला।क्या कहूँ मैं, शब्द नहीं है जो पूरी बात बता सकूँ।
-:आदर्श शिष्य धर्म:-
शिष्य वही है जो गुरू के पास अपने को हर तरह से झुका दे पूरी श्रद्धा से तभी गुरू शिष्य के अन्तर्मन मे प्रवेश कर क्रिया और कृपा कर पायेंगे।शिष्य बनना बहुत मुश्किल है,बड़े बड़े भक्त भी गुरू के समीप जाते है,गुरू कृपा से दीक्षा भी मिल जाती है परन्तु गुरू पर पूर्ण आस्था कभी नहीं बना पाते।दीक्षा लेकर भी शिष्य सरल चित न होकर अंहकारी बन जाये तो अध्यात्मिक धरातल पर कभी भी आगे नहीं बढ सकता।आज गुरू की कमी नहीं है,तथा शिष्य भी बहुत मिल जाते है लेकिन जो सिद्ध गुरू है वहाँ निम्न स्तरीय लोग पहुँच ही नहीं पाते,अगर दैव योग से पहुँच जाये तो उन्हें समझ नहीं पाते,और दैव कृपा से थोड़ा समझ में आया भी
तो गुरू की एक परिक्षा से ही भाग जाते है,और जाकर गुरू के बारे में अनाप,शनाप बोलते हैं ऐसे लोग क्या कभी शिष्य बन पायेंगे। गुरू से एकाध मंत्र मिल जाने के बाद लोग स्वयं गुरू बन जाते है।गुरू का रहस्य शिष्य ही अनुभव कर पाता है।शिष्य के मानस में तो गुरू,हृद्वय तथा आज्ञा चक्र में हमेशा विराजमान है।गुरू,शिव है तथा शिव ही एकमात्र गुरू हैं।इसी कारण गुरू को परम ब्रह्म कहा गया है यानि गुरू आदि,अंत दोनों जगह विराजमान है।यह लेख मैं अपने गुरूदेवों के प्रसन्नार्थ लिख रहा हूँ कारण वे सभी बड़े पुण्यात्मा है जो अपने गुरू के प्रति समर्पित है।गणेश क्यों प्रथम पूजनीय है,इसलिये कि जगत गुरू माता पिता का ही परिक्रमा कर यह बोध कराते है कि जीवन में माता पिता ही प्रथम गुरू है,भूल से भी माता पिता का अनादर नहीं करना चाहिए नहीं तो अध्यात्मिक यात्रा में सफलता मिलना मुश्किल हो जाता है।गुरू जैसे भी हो अगर हम सरलचित हैं,तो गुरू कृपा का लाभ होता है।आप जिस लायक है,वैसे ही गुरू जीवन में मिल जाते है।कभी कभी ऐसा भी होता है की आप किसी सामान्य गुरू की ही बहुत दिल से सेवा करते है और इसके फलस्वरूप सद्गुरू की कृपा प्राप्त हो जाती है।आपने सुना होगा कि एक गुरू जो शिवभक्त थे उन्होनें अपने शिष्य को शिव मंत्र प्रदान किया था।एक बार शिष्य शिव मंत्र का जाप कर रहा था कि उसी समय गुरू जी आ गये तो शिष्य ने सोचा कि गुरू जी भी शिव के ही भक्त है और अभी मैं शिव पूजन कर रहा हूँ,इस समय पूजन छोड़ गुरू को प्रणाम क्यों करूँ,जबकि शास्त्र कहता है गुरू के आते सब साधना रोक गुरू की सेवा एवं आज्ञा से चले।इस गलती के कारण शिव प्रकट होकर शिष्य को दण्ड देने जा रहे थे,तो फिर गुरू ने भावमयी दिव्य स्तुति कर शिव के कोप से शिष्य को बचाया।जीवन में जिस भी गुरू से आपको थोड़ा भी अध्यात्मिक लाभ मिला हो वो सभी प्यारे है लेकिन अंहकारी शिष्य को जब सदगुरू मिल जाते है तो वे नीचे के गुरू का अपमान,तथा उन्हें निम्न स्तरीय समझ लेता है इस कारण उसका अध्यात्मिक प्रगति सदगुरू के पास जाकर भी नहीं होता।सदगुरू साक्षात शिव ही है और शिव गुरूओं के गुरु यानि व्यासपीठ पर बैठे जगत गुरू हैं।अगर शिव ने मुझे इतने गुरू नहीं दिये रहते तो क्या मेरा प्रगति होता इस कारण मेरे सभी गुरू शिव जैसे भोलेभाले है जो मुझे आगे बढाने में परम कृपालु रहें।।लोग अपने माता पिता को कष्ट देते है,किसी से प्रेम नही कर सकते अपने अंहकार में गलती करते हुए भी उसे सही समझ लेते है वे सदगुरू के पास जाकर भी क्या पायेंगे।इस कारण आदर्श शिष्य बनने की कोशिश करनी चाहिए तभी गुरू की पुर्ण कृपा होगी।मैने देखा है अच्छे गुरू से दीक्षा लेने के बाद भी लोग अनुशासन भंग करते है तथा और भी गलत कार्य करने लगते है तथा कहते है गुरू जी पर भरोसा और श्रद्धा है,वे सब सम्हाल देंगे,ऐसे शिष्य है आज के।
-:शिक्षा:-
मेरे प्रथम गुरू काली की मूर्ति में भुवनेश्वरी की प्रतिष्ठा किये थे,नाम तारा का लिखे थे और चांदी का श्रीयन्त्र भी साथ रखते और जीवन में लोगो के भीषण संकट से छुटकारा के लिए श्रीबगलामुखी का अनुष्ठान कराते थे।बहुत शिष्य लोग वहाँ थे परन्तु न कभी गुरू पूजन करते न गुरू को सम्पूर्णता से अपना पाते तभी मैं गया था।मैंने गुरू पूजन का भव्य आयोजन रखा और लोगों को यह समझाया कि प्रथम गुरू पूजन करना जरूरी है,कुछ ने माना कुछ ने बिना मन ही मेरे राय से सहमत हुये।पूजन जब शुरू हुआ तो एक एक कर सारे लोग गुरू पूजन करने लगे ,कुछ ने दिल से किया कुछ ने सिर्फ दिखावा ,गुरूजी सब समझते थे,मैं अंतिम में गुरू का भावमयी पूजन शुरू किया तो मैं तो रो ही रहा था,गुरूजी भी रो पड़े,ऐसे भोले थे हमारे प्रथम गुरु "सीताराम जी"।उन्हीं की कृपा रही कि दतिया श्रीस्वामी ने मुझे अपनाया।आज शरीर के रुप में भले वे गुरूजी नहीं हैं परन्तु दिव्य रूप में सभी कुछ करने वाले ये ही है।मैने जीवन में श्रीस्वामी का बहुत बार दिव्य शरीर के रुप में स्वप्न या जाग्रत में दर्शन किया है।आज सभी के साथ जो उपस्थित है वह श्री विष्णुकान्त मुरिया जी,दतिया जो भक्त वत्सल तो है ही साथ ही हमें कोई भी मार्गदर्शन हो वे,दिल से राह दिखाकर हमे कृतार्थ करते है।उनके पास बैठने पर लगता है परम शांति है,इनकी निश्चल मुस्कान से ही हम उर्जावान बन जाते है,इनकी दिव्य एवं रहस्यमय वाणी हमे सोचने और समझने पर विवश करती हैं।एकलव्य के बारे में लोग बात करते है,शिष्य की परकाष्टा है एकलव्य जो गुरू की मूर्ति से भी गुरू तत्व की कृपा तले सब कुछ पा गया और अंत में दोर्णाचार्य ने अंगुठा ही मांग लिया,यहाँ शिष्य एकलव्य को कोई दुख नहीं हुआ कारण वह गुरू तत्व को जानता,समझता था। यह परम श्रेष्ठ शिष्य है,ऐसे ही शिष्य को होना चाहिए लेकिन आज भस्मासुर शिष्य ज्यादा है जो गुरू को राय देंगे,गुरू के समझ को मुर्खता कह उन्हें सिखायेंगे ये शिष्य क्या कभी गुरू सता को समझ पायेंगे।साधक,भक्त जो सच्चे होते है उनकी बुद्धि कम होती ही है,कारण ये लोग हृद्वय प्रधान होते है,इन्हें बुद्धि की बात पूरी समझ में नही आती।ये सभी कुछ अच्छा ही समझते है।श्रीस्वामी साक्षात सिद्ध एवं शिव है उन्हें अस्वस्था में सभी प्रेम बस दवा खिलाते रहे और वे जान बूझ कर खाते रहे,यही गुरू का स्वभाव है,शिव का स्वभाव है।एक बार गुरू कृपा हो जाए तो सभी देव,देवी साधक को दर्शन देते है,मदद करते है तभी तो हनुमान चालीसा का प्रथम दोहा "श्री गुरू चरण....यानि मै अपने मन दर्पण को श्रीगुरू जी की चरण धूली से पवित्र कर श्री रघुवीर जी के यश का गुणगान करता हूँ।" गुरू के बिना किसी को कुछ भी प्राप्त नहीं होता,यह सत्य है,श्रीराम को भी गुरू बनाना पड़ा,साईं,कृष्ण,आद्य शंकराचार्य किसने गुरू नहीं बनाया जबकि वे साक्षात ही जगतगुरू थे।गुरू गोरखनाथ स्वयं शिव है परन्तु उन्होने भी गुरू बनाया फिर दत्तात्रेय तो ब्रह्मा,विष्णु,महेश है और उन्होनें २४ गुरु बनाकर लोगो को शिक्षा दी।बिना गुरू जीव को कुछ भी प्राप्ति संभव नही है।अगर गुरू किसी एक पंथ को ही सच्चा बाकी को गलत कहे वह पूर्ण गुरू नहीं है,गुरू तो सबका मर्म बताकर तुम्हें तुम्हारे मार्ग यानि तुम्हारे लायक कौन मार्ग चाहिए उस पर चला देता है।तभी तो कहा गया है कि "नाना पंथ जगत में निज निज गुण गावें।सबका सार बताकर गुरू मारग लावें॥" यही गुरू कृपा है।

Saturday, July 9, 2011

"महामृत्युञ्जय शिव".....(प्राणों के रक्षक)

शिव आदि देव है।शिव को समझना या जानना सब कुछ जान लेना जैसा हैं।अपने भक्तों पर परम करूणा जो रखते है,जिनके कारण यह सृष्टि संभव हो पायी है,वह एकमात्र शिव ही है।शिव इस ब्रह्माण्ड में सबसे उदार एवं कल्याणकारी हैं।अनेक रुपों में शिव सिर्फ दाता हैं।सम्पूर्ण लोक के सभी देवता और देवियाँ महा ऐश्वर्यशाली हैं,परन्तु शिव के पास सब कुछ रहते हुए भी वे वैरागी हैं।कारण वे ही निराकार और साकार पूर्ण ब्रह्म हैं।शिव पल पल कितने विष पीते है,कहना क्या?दक्ष प्रजापति ने अपनी पुत्री सती का कन्यादान किया था,शिव दमाद थे।परन्तु एक बार किसी सभा में सभी देवों की उपस्थिती में दक्ष के आने पर सभी देवता और ॠषिगण सम्मान में दक्ष को प्रणाम करने लगे,परन्तु शिव कुछ नही बोले।इस बात को स्वयं का अनादर समझ कर दक्ष शिव को भूतों का स्वामी,वेद से बहिष्कृत रहने वाला कह अपमान करने लगे,परन्तु शिव ने कुछ नहीं कहा।
कुछ काल बाद दक्ष प्रजापति ने एक बहुत बड़े यज्ञ का आयोजन कनखल क्षेत्र में रखा सभी देवी,देवता,ॠषि,मुनि सहित असुर,नवग्रह,नक्षत्र मण्डल को भी निमंत्रित किया परन्तु शिव को नही बुलाया।कारण शिव के अपमान के लिए ही यज्ञ रखा गया था।शिव भक्त दधिचि शिव के बिना यज्ञ को अमंगलकारी बताकर वहां से चले गये।अभिमानी लोगों का यही हाल है वो थोड़ी सी शक्ति आ जाने पर अपने को सर्वज्ञ समझ लेते है।रोहिणी संग चन्द्रमा को जाते देख सती को जब इस बात का ज्ञान हुआ कि मेरे पिता के यहां यज्ञ में ये जा रहे है तो आश्चर्य हुआ कि हमे क्यों नही बुलाया?वे शिव जी के समीप जाकर बोली कि स्वामी मेरे पिता ने हमें यज्ञ में नहीं बुलाया फिर भी मैं जाना चाहती हूँ।सती को शिव नें समझाया कि बिन बुलाए जाना मृत्यु के समान हैं,परन्तु सति द्वारा हठ करने पर शिव ने आज्ञा प्रदान की।यज्ञ में जब शिव की निन्दा सुन सती ने आत्मदाह कर लिया तो शिव ने अपनी जटा से वीरभद्र तथा कालिका को प्रकट कर असंख्य गणों के साथ दक्ष यज्ञ के विनाश के लिए भेजा।क्या परिणाम हुआ अंहकारी,देव,दानव के साथ दक्ष का भी सिर मुण्डन हो गया।फिर शिव की दया ही थी कि ब्रह्मा जी के स्तुति से प्रसन्न होकर दक्ष को पशु मुख देकर अभय दान प्रदान किया।
शिव है तो सारी सृष्टि हैं।शिव का एक रूप है "महामृत्युञ्जय" जो सभी को अमृत प्रदान करते है।आज प्रकृति हमारे विरूद्ध हो गई है,कारण हम उस दिव्य प्रकृति को ही नष्ट कर रहे हैं।हम शायद ज्यादा बुद्धिमान वैज्ञानिक हो गये है।इतने ही अगर हम योग्य हो गये है तो,महामारी,भूकम्प और गंगा आदि नदीयों की अशुद्धता,आसुरी बुद्धि चिंतन को बदलने का विज्ञान क्यों नहीं ढूढँ लेते हैं।हर युग में विज्ञान रहा है।द्वापर में कृष्ण के समय भी इस सृष्टि में आसुरी प्रवृति की कमी नहीं थी,तभी तो महाभारत जैसा युद्ध हुआ था।आज उन्हीं आसुरी जीवों का ज्यादा विकास हो रहा समाज में,शिव को मनाना होगा स्तुति से प्रसन्न करना होगा तभी संतुलन होगा।भक्ती तो आज बहुत से लोग कर रहे है।भगवत कृपा,दिव्य दर्शन भी ज्यादा से ज्यादा हो रहे है,परन्तु हमारी आँखे कभी प्रभु को खोजती भी हैं क्या।शिव तो सदा हमारे सामने ही खड़े है क्या हम उन्हें देख पाते है,नहीं!कारण हमेशा व्यर्थ की चीजों को देख अपनी आँखो को थका लेते है,जिस कारण से अब उर्जा ही नहीं रही तीसरे नेत्र से देखने की हममे।शिव व्याकुल हैं हमारे लिए पर हमे तो भक्ति करने का भी ढंग नही है।हमे भी तो शिव के लिए व्याकुल होना पड़ेगा।हम दुशमन है अपने परिवार के,अपनी संतान के अपनी नयी पीढी के जिसे अपने अंहकार वश विंध्वस के राह पर ले जा रहे है,कारण शरीर,मन,बुद्धि से हम रोगग्रस्त है।यहाँ बस शिव मृत्युञ्जय की अराधना से ही हम स्वस्थ हो पायेंगे।इस विषम परिस्थितियों से बचने के लिए शिव कृपा ही एकमात्र सहारा है।मृत्यु क्या है?सिर्फ शरीर के मृत्यु की बात नहीं हैं यह,हमारे इच्छाओं की मृत्यु।हमारे जीवन की बहुत सी भौतिक जरूरते,वंश और समाज की अवनति तथा कोई भी अभाव मृत्यु ही तो हैं।
 -:अनुभव:-
मैंने जीवन में इतने प्रयोग किये है,करवाये है और देखे है की लिखूँ तो एक वृहद पुस्तक का रूप ले लेंगे।माँ काली की साधना के दौरान १० लाख मंत्र जप के बाद जब मेरा शरीर जर्जर होकर रोग ग्रस्त हो गया था तब बहुत से उपाय,दवा और दुआ के बाद भी मैं ठीक न हो सका था।मैं समझ गया अब बचना मुश्किल है,क्या करूं बच्चे अभी छोटे है इनका क्या होगा।एक रात यूँही चुपचाप रोते रोते नींद आ गई तभी मैने देखा एक विचित्र वेषभूषा में एक आदमी मेरे पास आकर बोलता है कि तुम बच नहीं सकते,तुम्हें मरना पड़ेगा।और तभी ११,१२ वर्ष के उम्र के गौर वर्ण शिव प्रकट हुए बालक रूप में।ये तो बटुक भौरव लगते है कहता हुआ और उन्हें देख वह आदमी भाग गया और मैं तो भाव विह्वल होकर बस उन्हें प्रणाम करने लगा।उन्होनें कुछ आदेश दिया,कुछ गोपनीय बात बतायी,और चले गये।मैं प्रथम बार काशी की यात्रा कर श्री विश्वनाथ जी का दर्शन किया।रात्री ८ बज रहे थे,हल्की बारिश की फुहार हो रही थी।मैं मणिकर्णिका घाट पर था तभी एक,अघोरी स्त्री ने आकर मुझे मृत्युञ्जय मंत्र नित्य दिन में जप करने को कहा।ये स्त्री कौन है,सोच ही रहा था कि वह न जाने कहां लोप हो गई।प्रातः से मैने मंदिर में जप शूरू किया और उसी दिन लगा कि अब मैं पूर्ण स्वस्थ हूँ।कितनी ऐसी घटना है,शिव बाबा के करुणा और स्नेह की।
-:संदेश:-
पुराण की कथा लोग ठीक से समझ जाये तो मर्म समझ में आ जायेगा।सती महाशक्ति थी,वह जानती थी,कि शिव से वियोग होने वाला है।शिव निराकार ब्रह्म है परन्तु साकार रूप बस मेरी खातिर ही धरे हैं मैं उनकी आत्मा हूँ।मेरा अगला अवतरण हिमालय के यहाँ होगा तब तक शिव समाधि में रहेगे इसी कारण जाने के पूर्व दश महाविद्या के रूप में शिव के दशों दिशा में विराजमान हो गई।शिव ही सभी कुछ है,शिव ही माँ है,"माँ" ही शिव है,ये दो होते हुए भी एक ही हैं।शिव,शक्ति का अमिट प्रेम ही सत्य है तभी तो कहा गया "सत्यम शिवम सुन्दरम्"।
मृत्युञ्जय शस्त्र विहीन है पर उनकी शक्ति अमृतेश्वरी पीताम्बरा माता हैं।जो कहती है "देते रहिये शिव,बांटते रहिए,जीव पर करूणा बरसाते रहिये,मैं तो अमृत कुण्ड की स्वामिनी हूँ और आप मेरे स्वामी है।" यही शिवशक्ति का संबध है।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                             -:मंत्र प्रयोग:-
मूल मंत्र में संपुट लगा देने से यह मंत्र महामृत्युञ्जय हो जाता है।लघु मृत्युंजय तथा बहुत से ऐसे मंत्र है,जिसका जप किया जाता है।जीव को मृत्यु मुख से खींच लाते है,मृत्युंजय।आज तो हमेशा भय लगा रहता है कि कब क्या हो जाय।ग्रह के अशुभ दशा या दैविक,दैहिक प्रभाव,तंत्र या कोई भी अनिष्टकारी प्रभाव को दूर कर देते है पल में।पुरा परिवार सुरक्षित रहता है,छोटा रोग हो या असाध्य बिमारी,आपरेशन हो या महामारी,कोई खो जाय या कोई भी संकट आन पड़े मृत्युंजय की कृपा से सब कुछ अच्छा हो जाता हैं।मृत्युंजय मंत्र ३२ अक्षर का "त्र्यम्बक मंत्र" भी कहलाता हैं ।"ॐ" लगा देने से यह ३३ अक्षर का हो जाता हैं,इस मंत्र में संपुट लगा देने से मंत्र का कई रूप प्रकट हो जाता है।गायत्री मंत्र के साथ प्रयोग करने पर यह "मृतसंजीवनी मंत्र" हो जाता हैं।मंत्र प्रयोग के लिए "शिव वास" देखकर ही जप शुरू करें।शिव मंदिर में मंत्र जप करने पर कोई नियम की पाबन्दी नहीं हैं।यदि घर में पूजन करते है तो पहले पार्थिव शिव पूजन करके या चित्र का पूजन कर घी का दीपक अर्पण कर,पुष्प,प्रसाद के साथ कामना के लिए दायें हाथ में जल,अक्षत लेकर संकल्प कर ले।कितनी संख्या में जप करना है यह निर्णय कर ले साथ ही जप माला रूद्राक्ष का ही हो।एक निश्चित संख्या में ही जप होना चाहिए।हवन के दिन "अग्निवास" देख लेना चाहिए।आज मै "मृत्युंजय प्रयोग" दे रहा हूँ,विधि संक्षिप्त हैं पूरी श्रद्धा के साथ प्रयोग करे,और शिव कृपा देखे।साथ ही शिव पार्थिव पूजन विधि श्रावण में दे दूंगा।गुरू,गणेश पूजन के बाद शिव पूजन कर,पूर्व दिशा में ऊनी आसन पर बैठ एकाग्र चित जप करना चाहिये।आचमनी निम्न मंत्र से कर संकल्प कर ले।दाएँ हाथ मे जल लेकर मंत्र बोले 
मंत्र
१.ॐ केशवाय नमः।जल पी जाए।
२.ॐ नारायणाय नमः।जल पी जाए।
३.ॐ माधवाय नमः।जल पी लें।
अब हाथ इस मंत्र से धो ले।४.ॐ हृषिकेषाय नमः।

अब संकल्प करे।संकल्प अपने कामना अनुसार छोटा,बड़ा कर सकते है।दाएँ हाथ में जल,अक्षत,बेलपत्र,द्रव्य,सुपारी रख संकल्प करें।
संकल्प 
"ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुःश्रीमद् भगवतो महापूरूषस्य,विष्णुराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य ब्रह्माणोऽहनि द्वितीये परार्धे श्री श्वेत वाराहकल्पे,वैवस्वत मन्वन्तरे अष्टाविंशति तमे कलियुगे कलि प्रथमचरणे भारतवर्षे भरतखण्डे जम्बूद्वीपे आर्यावर्तैक देशान्तर्गते अमुक संवतसरे महांमागल्यप्रद मासोतमे मासे अमुक मासे अमुकपक्षे,अमुकतिथौःअमुकवासरे,अमुक गोत्रोत्पन्नोहं अमुक शर्माहं,या वर्माहं ममात्मनःश्रुति स्मृति,पुराणतन्त्रोक्त फलप्राप्तये मम जन्मपत्रिका ग्रहदोष,दैहिक,दैविक,भौतिक ताप सर्वारिष्ट निरसन पूर्वक सर्वपाप क्षयार्थं मनसेप्सित फल प्राप्ति पूर्वक,दीर्घायु,विपुलं,बल,धन,धान्य,यश,पुष्टि,प्राप्तयर्थम सकल आधि,व्याधि,दोष परिहार्थम सकलाभीष्टसिद्धये श्री शिव मृत्युंजय प्रीत्यर्थ पूजन,न्यास,ध्यान यथा संख्याक मंत्र जप करिष्ये।"
गणेश प्रार्थना
गजाननं भूतगणादि सेवितं कपित्थजम्बू फलचारूभक्षणम्।उमासुतं शोक विनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वर पाद पंकजम्॥नागाननाय श्रुतियज्ञविभूषिताय,गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते॥ॐ श्री गणेशाय नमः।

गुरू प्रार्थना 
गुरूर्ब्रह्मा,गुरूर्विष्णु,गुरूर्देवो महेश्वरः।गुरू साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरूवे नमः॥

गौरी प्रार्थना
ॐ नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्मताम्॥
                            
  विनियोग 
अस्य त्र्यम्बक मन्त्रस्य वसिष्ठ ऋषिःअनुष्टुप छन्दःत्र्यम्बक पार्वतीपतिर्देवता,त्र्यं बीजम्,वं शक्तिः,कं कीलकम्,सर्वेष्टसिद्धयर्थे जपे विनियोगः।
ऋष्यादिन्यास
 ॐ वसिष्ठर्षये नमःशिरसि।अनुष्टुप् छन्दसे नमः मुखे।त्र्यम्बकपार्वतीपति देवतायै नमः हृदि।त्र्यं बीजाय नमः गुह्ये।वं शक्तये नमः पादयोः।कं कीलकाय नमः नाभौ।
विनियोगाय नमःसर्वागें।
करन्यास
त्र्यम्बकम् अंगुष्ठाभ्यां नमः।यजामहे तर्जनीभ्यां नमः।सुगंधिं पुष्टिवर्द्धनं मध्यमाभ्यां नमः।उर्वारूकमिव बन्धनात् अनामिकाभ्यां नमः।मृत्योर्मुक्षीय कनिष्ठिकाभ्यां नमः।मामृतात् करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
हृदयादिन्यास
ॐ त्र्यम्बकं हृदयाय नमः।यजामहे शिरसे स्वाहा।सुगन्धिं पुष्टिवर्द्धनं शिखायै वषट्।उर्वारूकमिव बन्धनात् कवचाय हुं।मृत्योर्मुक्षीय नेत्रत्रयाय वौषट्।मामृतात् अस्त्राय फट्।
ध्यान
हस्ताभ्यां कलशद्वयामृतरसैराप्लावयन्तं शिरो द्वाभ्यां तौ दधतं मृगाक्षवलये द्वाभ्यां बहन्तं परम्।अंकन्यस्तकरद्वयामृतघटं कैलासकान्तं शिवं स्वच्छाम्भोजगतं नवेन्दुमुकुटं देवं त्रिनेत्रं भजे।
मंत्र
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥
हवन विधि
जप के समापन के दिन हवन के लिए बिल्वफल,तिल,चावल,चन्दन,पंचमेवा,जायफल,गुगुल,करायल,गुड़,सरसों धूप,घी मिलाकर हवन करे।रोग शान्ति के लिए,दूर्वा,गुरूचका चार इंच का टुकड़ा,घी मिलाकर हवन करे।श्री प्राप्ति के लिए बिल्वफल,कमलबीज,तथा खीर का हवन करे।ज्वरशांति में अपामार्ग,मृत्युभय में जायफल एवं दही,शत्रुनिवारण में पीला सरसों का हवन करें।हवन के अंत में सुखा नारियल गोला में घी भरकर खीर के साथ पुर्णाहुति दें।इसके बाद तर्पण,मार्जन करे।एक कांसे,पीतल की थाली में जल,गो दूध मिलाकर अंजली से तर्पण करे।मंत्र के दशांश हवन,उसका दशांश तर्पण,उसका दशांश मार्जन,उसका दशांश का शिवभक्त और ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए।तर्पण,मार्जन में मूल मंत्र के अंत मे तर्पण में "तर्पयामी" तथा मार्जन मे "मार्जयामी" लगा लें।अब इसके दशांश के बराबर या १,३,५,९,११ ब्राह्मणों और शिव भक्तों को भोजन कर आशिर्वाद ले।जप से पूर्व कवच का पाठ भी किया जा सकता है,या नित्य पाठ करने से आयु वृद्धि के साथ रोग से छुटकारा मिलता है।
मृत्युञ्जय कवच
विनियोग
अस्य मृत्युञ्जय कवचस्य वामदेव ऋषिःगायत्रीछन्दः मृत्युञ्जयो देवता साधकाभीष्टसिद्धर्यथ जपे विनियोगः।
ऋष्यादिन्यास
वामदेव ऋषये नमःशिरसि,गायत्रीच्छन्दसे नमःमुखे,मृत्युञ्जय देवतायै नमःहृदये,विनियोगाय नमःसर्वांगे।
करन्यास
ॐ जूं सःअगुष्ठाभ्यां नमः।ॐ जूं सः तर्जनीभ्यां नमः।ॐजूं सः मध्याभ्यां नमः।ॐजूं सःअनामिकाभ्यां नमः।ॐजूं सःकनिष्ठिकाभ्यां नमः।ॐजूं सःकरतलकरपृष्ठाभ्यां नमः।
हृदयादिन्यास
ॐजूं सः हृदयाय नमः।ॐजूं सःशिरसे स्वाहा।ॐजूं सःशिखायै वषट्।ॐजूं सःकवचाय हुं।ॐजूंसःनेत्रत्रयाय वौषट्।ॐजूं सःअस्त्राय फट्।
ध्यान
हस्ताभ्यां.....उपरोक्त ध्यान ही पढ ले।
शिरो मे सर्वदा पातु मृत्युञ्जय सदाशिवः।स त्र्यक्षरस्वरूपो मे वदनं च महेश्वरः॥
पञ्चाक्षरात्मा भगवान् भुजौ मे परिरक्षतु।मृत्युञ्जयस्त्रिबीजात्मा ह्यायू रक्षतु मे सदा॥
बिल्ववृक्षसमासीनो दक्षिणामूर्तिरव्ययः।सदा मे सर्वदा पातु षट्त्रिंशद् वर्णरूपधृक्॥
द्वाविंशत्यक्षरो रूद्रः कुक्षौ मे परिरक्षतु।त्रिवर्णात्मा नीलकण्ठः कण्ठं रक्षतु सर्वदा॥
चिन्तामणिर्बीजपूरे ह्यर्द्धनारीश्वरो हरः।सदा रक्षतु में गुह्यं सर्वसम्पत्प्रदायकः॥
स त्र्यक्षर स्वरूपात्मा कूटरूपो महेश्वरः।मार्तण्डभैरवो नित्यं पादौ मे परिरक्षतु॥
ॐ जूं सः महाबीज स्वरूपस्त्रिपुरान्तकः।ऊर्ध्वमूर्घनि चेशानो मम रक्षतु सर्वदा॥
दक्षिणस्यां महादेवो रक्षेन्मे गिरिनायकः।अघोराख्यो महादेवःपूर्वस्यां परिरक्षतु॥
वामदेवः पश्चिमायां सदा मे परिरक्षतु।उत्तरस्यां सदा पातु सद्योजातस्वरूपधृक्॥

इस कवच को विधि विधान से अभिमंत्रित कर धारण करने का विशेष लाभ हैं।महामृत्युञ्जय मंत्र का बड़ा महात्मय है।शिव के रहते कैसी चिन्ता ये अपने भक्तों के सारे ताप शाप भस्म कर देते है।शिव है तो हम है,यह सृष्टि है तथा जगत का सारा विस्तार है,शिव भोलेभाले है और उनकी शक्ति है भोली शिवा,यही लीला हैं।                                  

Tuesday, July 5, 2011

"माँ तारा":-(ममतामयी माँ सबको तारने वाली)

माँ तारा जब तुम्हें याद करता हूँ तो मन भर जाता है और शब्द निकल नहीं पाते क्या लिखूँ तारा माँ तुम्हारे बारे में।प्रेम की पराकाष्ठा हो तुम,परम प्रेममयी हो और सबको तारने वाली प्यारी माँ हो।वशिष्ठ के द्वारा तुम्हारी साधना करने पर भी जब तुम्हारी सिद्धि नहीं हो पाई तो तुम्ही को किलित करने लगे।तब तुमने आकाशवाणी कर बताया कि चीनाचार विधि से तुम्हारी साधना सफल हो पायेगी तब जाकर वे तारा की सिद्धि कर पाये और साधना स्थान रहा "तारापीठ की वीरभूमी" जहाँ पंचमुंडी आसन पर बैठकर वे साधना कर पाए।द्वापर युग में कृष्ण के आने पर तुम्हारी साधना के कीलन टुट गये और तुम्हारी साधना सबके लिए सुलभ हो पाया।तुम्हारे परम साधक,भक्त तारापीठ के वामाखेपा जी हुए जिन्होने बिना मंत्र,विधि के प्रेम और भक्ति से ही तुम्हें प्राप्त कर लिया।तुम अपने भक्तों का विशेष ख्याल रखती हो कारण तुम बहुत ममतामयी माँ हो।
-:प्रसंग:-
वामा,माँ तारा से झगड़ा करते फिर माँ को मनाते।कभी जब खुद रूठ जाते तो माँ अपने प्यारे बेटे को मनाती।ऐसा संबध है तारा माँ का अपने भक्तों से।एक बार की घटना है तारापीठ के मंदिर में मां का पूजा आरम्भ होने जा ही रहा था कि वामाखेपा मंदिर में पहुँच कर माँ का प्रसाद जो भोग के लिए रखा था खुद खाने लगे।इनके इस कृत्य को देख पंडित,पुजारी इन्हें मारने लगे,बहुत मारा उन्हें और उठाकर बाहर फेंक दिया और कहा कि फिर दिखाई मत देना मंदिर के आसपास।वामा रो रहे थे और बोल रहे थे कि "तुने ही मंदिर मे बुलाया माँ और इतना मार खाया मै।अरे भई तुम लोग मुझे इस तरह मत मारो,माँ ने मुझसे खाने को कहाँ था तभी मैं खा रहा हूँ।" इधर मार पे मार पड़ती रही,वो दर्द से चिल्लाते रहे।पागल मुर्ख कही के,अब देखते है कौन तुमको अब प्रसाद खाने को देता है,एक पुजारी कहता है।एक भक्त से रहा नहीं गया कि बेचारा बोल उठा क्यों मार रहे हो बेचारे को ब्राह्मण का लड़का है,छोड़ दो इसे।मारे नहीं तो क्या करें,इस पागल को अभी पुजा भी नहीं हुई है प्रसाद जुठा कर दिया है।यह शमशान में कुते,सियार के साथ बैठकर जुठन खाने वाला,इसे कह रहे हो क्यों मार रहे हो?ठीक कर रहे है!ये फिर मंदिर के सामने दिखाई दिया तो मार के हाथ पैर तोड़ देंगे।इधर वामाचरण आँखो के आँसू पोंछते पोंछते उठ कर दर्द से कराहते हुए श्मशान आ गये और पेड़ के नीचे लेट कर रोते रहे।नाटो की रानी सो रही थी।उन्होनें स्वप्न देखा कि तारापीठ मे माँ तारा मंदिर छोड़कर रोते रोते जा रही है।जैसे उनको बहुत दुःख हो,माँ के बदन,पीठ से खुन निकल रहा था।जैसे माँ को किसी ने बड़ी बेदर्दी से मारा हो।हाथ जोड़कर रानी खड़ी हो गई और कहने लगी,माँ किस अपराध की सजा दे रही हो मां,हमे क्यों छोड़कर जा रही हो मां।फिर मां ने कहा काफी युग युगान्तर से मैं यहां काफी अच्छी और सुख शान्ति में थी लेकिन अब नहीं हूँ,तुम्हारे मंदिर में मेरे प्रिय पुत्र वामाचरण को कई लोगों ने निर्दयी होकर मारा है।वो प्रहार सब मुझ पर पड़े हैं,वो चोट मुझे लगी है।काफी दर्द हो रहा है,इसी वजह से मै और यहाँ नहीं रहूँगी चली जाऊंगी।रानी बोली एक की सजा दूसरे को क्यों माँ?मुझे अपनी गलती सुधारने का मौका दो,ताकि जिसने ये पाप किया हैं उसे सजा मिले मां!पर तुम हमें क्षमा करो मां।ठीक है पुत्री!मेरे प्रसाद को मेरे पुत्र को खिला दो,कारण चार दिन से मेरा पुत्र भूखा है और मैं भी उपवास में हूँ।रानी पड़प उठी,अरे मां!ये क्या आप चार दिन से उपवास में हैं!हां!अगर पुत्र भुखा हो तो क्या मां खा सकती है।इसीलिए मै भी भुखी हूँ।फिर अचानक रानी की नींद टूट गई।इधर मां तारा अपने पुत्र बामा को मनाने लगी।बामा पीड़ा से कराह रहे थे।मां वामाचरण के पास खुद प्रसाद लेकर आई और वामा से कहने लगी,ले बेटा प्रसाद खा ले,कितने दिनों से तुमने कुछ खाया नहीं,देख कैसी हालत हो गई है,एकदम सुख गया हैं।मां की बात सुन वामा बोले नहीं नहीं मैं नहीं खाऊंगा और मै कभी तुम्हारे मंदिर में नहीं जाऊंगा।खुद मंदिर में बुलाकर मार खिलाती हो।नहीं बेटे!उनलोगों ने तुम्हें नहीं मारा है,मुझे मारा है,ये देखो मेरे बदन में भी दाग है।मुझे भी दर्द हो रहा है,मैं भी तुम्हारी तरह भूखी हूँ।इतना सुनते वामा बोले,माँ मेरी तु भी भुखी हैं क्यों नहीं खाया तो मां बोली बेटा तुने नहीं खाया तो मैं कैसे खा सकती हूँ?इधर रानी अपनी प्रजा के साथ मंदिर आई।मंदिर में रानी आते ही सबसे पहले उस पुजारी को निकाल कर नया पुजारी रखा,फिर वामा को खोजने लगी।ढूँढते हुए रानी श्मशान में आई ,वहाँ वामा को देख क्षमायाचना करने लगी तथा सपने की सारी बात बताई।उसी समय रानी के आदेश पर मंदिर की सारी जिम्मेवारी वामाचरण को सौंप दी और बोली पहले वामा बाबा को भोग लगेगा फिर मां को भोग लगेगा तथा मंदिर की पूजा वामा अपने हिसाब से करेगें।इसके बाद क्या मजाल,कौन क्या कहे,बामा जाकर मंदिर के आसन पर बैंठ गये।कोई आचार,विचार नहीं मां को देख वामा मुस्कुरा दिये,तुम तो अन्तर्यामी हो,तुम क्या खाओगी पहले मैं ही खाऊंगा,और खुद खाने लगे,ये देख वहाँ उपस्थित लोग आश्चर्य होकर देखने लगे।खाना खाने के बाद वामा ने शुरू किया मां का पूजन करना।दोनों हाथों में जवा फूल की माला लेकर जितनी भी इच्छा हुई उतनी गाली देना शुरू किया मां को और वामा के आँखों से आँसू भी गिरते रहे ।फूल से उस आँसू को पोछते हुए अन्जली देने के उद्देश्य से देवी की मूर्ति पर फूल फेंक दिया।मंत्र के नाम पर उन्होनें सिर्फ ये कहा ये लो फूल,ये लो बेलपत्र,सारे भक्तजन लोग देखे कि वामा के द्वारा फेंके फूल एक एक कर सब आपस में मिलकर माला का रूप ले लिया फिर माँ के गले मे पहुँच गई।ऐसी प्रेममयी है तारा माँ और उनके भक्त।बामा एक बार काशी से पैदल ही तारा पीठ चल पड़े,कारण पैसा भी नहीं था।उनके सामने जो रास्ता मिला उसी रास्ते से आगे बढते रहे,दिन भर चलते जहां रात होती वही किसी पेड़ के निचे सो जाते फिर प्रातःचलने लगते।लगातार कई दिन भूखे प्यासे चलते रहे,बाद में थक गये थे तथा कमजोरी के कारण चल भी नही पा रहे थे।थककर एक पेड़ के नीचे बैठ गये फिर एक यात्री से पूछा ये कौन सी जगह हैं भाई,पर इन्हें पागल समझ लोग मुँह फेर चले जाते,थके तो थे ही फिर हार कर बोलने लगे हे माँ तारा ये कौन सी जगह ले आई हो माँ।अचानक एक आवाज आई तुम कहाँ जाओगे।नारी की आवाज सुन रास्ते के दुसरी तरफ देखा काले कपड़े पहनी हुई एक कुमारी कन्या खड़ी है,काफी सुन्दर घने बालों वाली कन्या थी तथा पाँवो मे आलता लगा हुआं था।वामा आवाक होकर देखते ही रहे और आंखो में आंसू बहने लगे।काली मां का एक कन्या के रूप में वामा के नजदीक आकर पूछने लगी तुम रो क्यों रहे हो?लगता हैं रास्ता भूल गये हो?हां माँ!मैं रास्ता भूल गया हूँ।श्यामांगी अपने आंचल से वामाचरण के आँसू पोंछने लगी फिर प्यार से बोली रोते क्यों हो?कहां जाओगे तुम?मुझे नहीं पता मां!महामाया मुझे कहां ले आई हैं,लेकिन मैं तो जाऊंगा मां।श्यामांगी मन्द मन्द हंसने लगी,लगता हैं तुम्हें काफी भूख लगी है,रूको मै माँ के मंदिर से प्रसाद लेकर आती हूँ।ये कहकर ही श्यामांगी दौड़कर जंगल की तरफ गई और कुछ देर बाद एक पत्ते में प्रसाद ले आई।ये देखकर वामा मन ही मन हंस रहे थे,सोचे ये क्या कर रही है माँ,मुझे संसार की मोह से दूर कर खूद बेटे के मोह में आ रही हैं।ये लो खाओ,मां बोली।वामा प्रसाद लेकर श्यामांगी का मुंह देखते देखते प्रसाद खाते रहे।खाने के बाद काफी तृप्ति मिली वामाचरण को तब वे मां से बोले,मैं "तारा पीठ" किस रास्ते से जाऊंगा मां?तुम तारापीठ जाओगे?वो तो बहुत दूर है,फिर भी इस जंगल के अन्दर से एक रास्ता जाता है,क्या तुम जा सकोगे?अगर आप हमें रास्ता दिखायेंगी तो मैं क्यो नहीं जा सकुंगा माँ! ऐसा क्या कभी हो सकता है?और क्यों तरसा रही हो मां,कैसे जाना है,किस रास्ते जाना है,मेरा हाथ पकड़ा के ले चलो मां,जिस रास्ते जाना हैं।मां अपने बेटे की बात सुन मुस्कुरा कर बोली,तो चलो जल्दी,फिर वामा भी हंस कर उस कन्या का हाथ पकड़ चल दिए,क्षण भर में वामा तारापीठ में थे,कन्या अदृश्य हो गई।
-:रुप:-
तंत्र में कहा गया है "ततःशून्या परारूपा श्रीमहासुन्दरी कला।सुन्दरी राजराजेशी महाब्रह्माण्डनायिका॥महाशून्या ततस्तारा तद्वैगुण्यक्रमेण च।मुक्तौ संयोज्य सर्वं तं महासुन्दर्यनन्ततः॥" श्रीमहासुन्दरी को कला और श्रीतारा को शून्यरूप निर्देश किया है।अब द्रष्टव्य यह है कि शून्यरूप में ही सब देवता और देवी शक्तियां हैं।इस कारण अंतिम शून्य साधना करने के बाद शून्यरूप निर्विकार ब्रह्मरूप में लीन होकर मुक्ति साधन किया जाता है।जब कही आसरा नहीं मिलता तो लोग तारा माँ के शरण में जाते है,माँ सभी को अभयदान भक्ति प्रदान करती ही हैं।काली का एक रूप है तारा माँ,थोड़ा सा फर्क हैं।वशिष्ट तारा माँ की सिद्धि वेदोक्त विधि से करने लगे।पर यह संभव ही नहीं है कारण वेद के द्वारा तारा की साधना नहीं हो सकती।कारण ये शिव विद्या है।वेद तो नंदीश्वर के द्वारा शापित है,कारण दक्ष प्रजापति के यज्ञ में वेद अनुयायी ब्राह्मणों ने शिव निन्दा की तो कुपित होकर नंदी ने ब्राह्मणों को शापित कर दिया था।तारा के शिव अक्षोभ्य है,इन्हे तारा अपने मस्तक पर बिठाये रखती है।अक्षोभ्य यानि क्षोभ से मुक्त पूर्ण तृप्त कारण तारा प्रेयसी है,पूर्ण प्रेममयी सब कुछ प्रदान करने वाली सबसे बचाकर शिव को,पुत्र को,भक्त को अपने से अलग न करना तथा बहुत गलतियों को नजर अंदाज कर देना यही तारा रहस्य है।तारा कई रूपों में जानी जाती है।बौध हो या जैन धर्म सभी को तारा ही अपने लक्ष्य तक पहुँचाई है।जन्म जन्म के हमारे बंधन तारा अपने कैंची से काट देती है,यानि तार देती है।तारा धन देती है ,विद्या भी देती है,तथा सब कुछ प्रदान करती है यानि मूर्ख को भी ज्ञानी बना देती है।इनका एक रूप है नीलसरस्वती का ये कवित्व शक्ति प्रदात्री हैं।जो निश्चल हृद्वय के है,कपट से दूर वो पूर्ण प्रेम करना जानते हो उनके लिए अराध्य हैं तारा माँ।तारा में सीताराम छुपे हैं।
-:उपदेश:-
वामाक्षेपा के भक्तों के लिए कुछ प्यारे उपदेश "भगवान को देखने के लिए कैसी दृष्टि चाहिए,वैसी दृष्टि मिल सकती हैं साधना के द्वारा,विश्वास के द्वारा,फिर हम भगवान को देख सकते है।भगवान न पूरूष है न स्त्री,उनकी व्याख्या ही नहीं की जा सकती हैं।वो स्त्री और पूरूष का मिश्रण रूप है,इससे अधिक न समझो नहीं तो माथा खराब हो जायेगा।" भक्तों के आग्रह पर फिर बोले "परमब्रह्म निराकार है,ब्रह्म की आत्मा है आदिशक्ति सर्वभूता मातृरूप इसलिये शक्ति का नारी रूप है।वो नारी रूप में शक्ति प्रतीक बनकर घर घर विराजती है।ब्रह्म और शक्ति एक है ये ही दोनों मिलकर भगवान कहलाते है,इन दोनो का संबंध अटूट है।बच्चे सबसे पहले अपनी मां को पहचानते है,फिर मां ही पिता की पहचान करवाती है।इसलिये सभी को मां की उपासना करनी चाहिए।आदिशक्ति काली है,उनकी तीन सृष्टि हैं ब्रह्मा,विष्णु,महेश।असल में संसार एक भोग करने की जगह है,हर इंसान एक ही बार में त्यागी हो जाये यह असम्भव है।पहले भोग फिर त्याग।भोग नहीं करने से त्याग की शुद्धता नहीं मिलती हैं।त्याग ही निवृत्ति मार्ग का दरवाजा है,भोग के रास्ते से ही मन को तैयार करना पड़ता है।बहुत सा दिव्य वचन वामाक्षेपा जी ने दिया जो मनन करने लायक है।जीवन में निरसता क्यों?अगर परमसता को ही पाना है तो पहले बड़े उमंग से कर्म करना चाहिए।जीवन के आधार के लिए एक सच्चा मुकाम बनाकर कोई भी कार्य किया जा सकता है,तारा से सच्चे दिल से मांगने पर वह सब कुछ प्रदान कर देती हैं।बहुत सी बातें है,परन्तु मां तारा प्रेम की विरह वेदना से ही सिद्ध हो जाती है।जो भी भक्त को चाहिए वह प्रदान कर देती है,यह मां ही महामाया एवं ब्रह्म शक्ति है।दिल से तारा तारा पुकारने पर ही ये भक्त के सारे संकट हर लेती है।तारा माँ अपनी कृपा दृष्टि बनाये रखो,तुम्हारी जय हो माँ।
-:तारापीठ स्थल:-
झारखंड के बैधनाथ धाम के बगल में दुमका जिला से सटे पश्चिम बंगाल के वीरभूमी में स्थित द्वारका नदी के पास महाश्मशान में स्थित है तारा पीठ।पूर्वी रेलवे के रामपुर हाल्ट स्टेशन से चार मील दूरी पर स्थित है तारा पीठ।रामकृष्ण के समकालीन ही वामा क्षेपा, तारा पीठ के सिद्ध अघोरी परम भक्त थे।तारा पीठ ५२ पीठो के अन्तर्गत माना गया है।तारा पीठ तीन हैं।सती देवी के तीन नेत्रों की मणि बिन्दु बतीस योजन के अन्दर त्रिकोणाकार,तीन विभिन्न स्थानों पर गिरे थे।मिथिला के पूर्व दक्षिणी कोने में,भागीरथी के उत्तर दिशा में,त्रियुगी नदी के पूर्व दिशा में "सती" देवी के बाँये नेत्र की मणि गिरी,तो यह स्थान "नील सरस्वती" तारा पीठ के नाम से प्रसिद्ध हैं।बगुड़ा जिले के अन्तर्गत "करतोया नदी के पश्चिम में दाँईं मणि गिरी,तो यह स्थान "एक जटा तारा" और भवानी तारा पीठ के नाम से विख्यात हैं।बैधनाथ धाम के पूर्व दिशा में उत्तर वाहिनी,द्वारका नदी के पूर्वी तट पर महाश्मशान में श्वेत शिमूल के वृक्ष के मूल स्थान में "सती देवी" के ऊर्धव यानी तीसरे नेत्र का तारा गिरा,तो यही स्थान "शिलामयी चण्डी भगवती उग्र तारा" के नाम से प्रसिद्ध हैं,यही तारा पीठ के भक्त थे वामाक्षेपा।