"ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारूकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥"

Thursday, June 30, 2011

"माँ धूमावती":-(श्रद्धा और प्रेम की भूखी)

अध्यात्म में सब कुछ अनुभव की ही बात होती है,जिसे समय से पूर्व बता देना कदापि उचित नहीं होगा एक साधक के लिए।मैं क्यों लिखता हूँ ब्लाग पर।यह सोचकर कि शायद मेरे अनुभव से प्रेरित होकर किसी को स्वयं का अनुभव लेने का मन करे और वह किसी भी एक साधना का मार्ग अपनाकर आगे बढ चले।मैं शिवशक्ति को "ॐ शिव माँ" इस नाम से क्यों पुकारता हूँ क्योंकि इस नाम का महत्व मेरे साधना की अनुभूति से संबधित हैं।अमर प्रेम की अमर कहानी,शिवशक्ति के सनातन प्रेम का संबध,त्याग,दया और करूणा की लीला हैं।

दशमहाविद्या रुपों के अंतर्गत "माता धूमावती" युगों युगों तक परम प्रेम की विरह वेदना,त्याग और ममता से भरी भूखी माँ है।किस चीज की भूख है इन्हें?वास्तव में जीव को शिव तत्व से ज्ञान प्राप्त कराकर शिव में मिला देना और सभी कुछ प्रदान कर देना यही इनकी ममतामयी भूख हैं।भूखी माँ हैं इसलिए भक्त को अपने आचार के हिसाब से धूमावती माता को खूब ढेर सारा भोग देना चाहिये ताकि माँ की कृपा बनी रहे।इनकी साधना बिना योग्य गुरू के कभी भूल से भी नही करनी चाहिये।मोह का जो नाश कर दे वही धूमावती हैं।हमारे जीवन में भाँति भाँति के मोह हैं।प्रेमिका,पत्नि का मोह,पद प्रतिष्ठा का मोह,संतान,धन,पद का मोह यहाँ तक की अपने शरीर का मोह,अंहकार का मोह,पापकर्म का मोह।जीवन के हर क्षेत्र में हम मोह से ग्रसित है,कारण हमारे अंदर दैविक शक्ति के साथ आसुरी शक्ति भी विद्यमान है इस आसुरी शक्ति के मोह का यह नाश करती है तभी हम अध्यात्म के डगर पर श्रद्धा से निर्भिक होकर पैर बढा पाते है।शत्रु संहार और दारिद्रय नाश के साथ ही भक्तों की रक्षा करती हैं।

उत्पति कथाः-
 इनकी उत्पति की कथा कुछ इस प्रकार है।एक बार भगवान शिव के अंक में अवस्थित माँ पार्वती भूख से पिड़ित होकर शिव से कुछ भोजन प्रबंध करने को कहने लगी,तब शिव ने कहा देवी प्रतिक्षा किजिये,शीघ्र भोजन की व्यवस्था होगी।परन्तु बहुत समय बीत जाने पर भी भोजन की कोई व्यवस्था नहीं हो सकी तब स्वयं भगवती ने शिव को ही मुख में रखकर निगल लिया,उससे उनके शरीर से धुआं निकला और शिव जी अपने माया से बाहर आ गये।बाहर आकर शिव ने पार्वती से कहा,मैं एक पुरूष हूँ और तुम एक स्त्री हो,तुमने अपने पति को निगल लिया।अतः अब तुम विधवा हो गई हो इस कारण तुम सौभाग्यवती के श्रृंगार को छोड़कर वैधव्यवेष में रहो।तुम्हारा यह शरीर परा भगवती बगलामुखी पीताम्बरा के रूप में विद्यमान था,लेकिन अब तुम धूमावती महाविद्या के रूप में जगत में पूजित होकर संसार का कल्याण करते हुए विख्यात होगी।

रुप और नामः-
 यह देवी भयानक आकृति वाली होती हुई भी अपने भक्तों के लिये सदा तत्पर रहती हैं।इन्हें ज्येष्ठा तथा अलक्ष्मी भी कहा जाता हैं।जगत की अमांगल्यपूर्ण अवस्था की अधिष्ठात्री के रूप में ये देवी त्रिवर्णा,विरलदंता,चंचलाविधवा,मुक्तकेशी,शूर्पहस्ता,कलहप्रिया,काकध्वजिनी आदि विशेषणों से वर्णित हैं।

प्रसंगः-
 दतिया में माता धूमावती की प्रतिष्ठा हुई,कारण सन १९६२ ई. में चीन देश द्वारा अपने देश पर आक्रमण करने से देश में संकट की घड़ी पैदा हो गयी।देश की आजादी शैशवास्था में थी।वहाँ के नेता माओत्सेतुङ्ग और चाऊएनलाई ने भारत से मित्रता कर हमें धोखा दिया था़।सच्चे देशभक्त की भाँति "श्रीस्वामी प्रभु" का हृदय राष्ट्र पर आई विपति को देखकर द्रवित हो उठा।
प्रभु ने राष्ट्र को निर्लिप्त रखकर उस महानतम विपत्ति से किस प्रकार बचाया जाये,इसका स्मरण करते हुये माँ का गुणगान किया।श्रीस्वामी जी ने एक शास्त्री को बुलाकर कहा कि देश पर संकट हैं और यह दैवीय उपाय से ही टाला जा सकता हैं।बड़े बलिदानों के बाद हमारा देश स्वतंत्र हुआ हैं,परन्तु शत्रु आक्रमण करके देश को फिर से गुलाम बनाना चाहते हैं।इन शत्रुओं की बर्बरता हमारे आर्य धर्म के लिए अत्यन्त घातक सिद्ध होगी।देश में न राम रहेगा न दास।देश में नास्तिकता घर कर जाएगी।शास्त्री ने जिज्ञासा की,क्या इसका कोई उपाय किया जा सकता है?प्रभो! श्री स्वामी जी ने उत्तर दिया,साधु शस्त्र लेकर तो लड़ नहीं सकते,पर जगदम्बा का प्रार्थना रूप अनुष्ठान अवश्य करा सकते हैं।इसके लिए सौ कर्मकाण्डी पण्डितों की आवश्यकता होगी,जो नित्य दुर्गा सप्तशती का पाठ करते हो अपने दैनिक जीवन में।जो अपने भजन का विक्रय न करते हों,जो शक्ति मन्त्र से दीक्षित हो।इसके लिए धन भी चाहिए।फिर चीन तो क्या ब्रह्माण्ड भी बदला जा सकता है।तुम कार्यक्रम की तैयारी करो।शास्त्री ने घर आकर विचार किया कि इसमें तो लाखों रूपये खर्च होंगे,धन कहाँ से आएगा? दूसरे दिन श्री महराज ने पूछा"क्या कार्यक्रम बना लिया हैं"?नहीं महराज जी अभी बना रहा हूँ।कहकर बात टाल दी।श्रीस्वामी जी ने कहा शीघ्रता से बनाओ।तीसरे दिन भक्त रामदास बाबा ने देखा महाराज जी व्यग्रता और बैचेनी से शिव मन्दिर के पास टहल रहे हैं।डरते डरते पास जाकर उन्होंने देखा कि महाराज जी का शरीर काँप रहा है नेत्रों में लाली छायी हैं,और मुँह से सिंह जैसी गर्जना निकल रही हैं।उन्होंने देखा कि श्री महाराज जी ने दाहिने हाथ की मुट्ठी को बाँधकर अपने सीने पर बड़े जोर से मारा जिससे बड़े धमाके की आवाज हुई।फिर सिंह गर्जनाकर बोले चीन अवश्य वापस जाएगा,चाहे मुझे इसके लिए अपना सर्वस्व ही क्यों न लगाना पड़े।इस देश का अन्न खाया हैं।रामदास बाबा से कहकर उस शास्त्री को बुलवा कर पूछा क्या तुमने कार्यक्रम बना लिया हैं?शास्त्री ने कहा महाराज बना रहा हूँ।यह सुनते ही महाराज जी ने कहा "तुम बड़े सुस्त हो,देश पर संकट आया है और तुम काम में देर कर रहे हो।"शास्त्री मन ही मन सोच रहे थे,चलो कार्यक्रम तो बना देते हैं होना जाना तो कुछ है नहीं क्योंकि खर्च का प्रबन्ध कहाँ से होगा।अभी यह बात सोच ही रहे थे कि देखा दवाईयाँ बनाने वाली कम्पनी "बैधनाथ भवन के मालिक पण्डित रामनारायण वैध" स्वामी दर्शन हेतु बड़ी व्यग्रता से अन्दर आ रहे हैं।वैध जी ने आते ही प्रणाम करके कहा प्रभो देश पर महान संकट आया है,क्या किया जाए?श्री स्वामी जी ने उत्तर दिया "उपाय तो है लेकिन धन की आवश्यकता पड़ेगी।" वैधजी ने शीघ्र उत्तर दिया मेरी अपनी सम्पूर्ण सम्पति जो आपकी कृपा से ही मुझे प्राप्त हुई है,राष्ट को समर्पित हैं। यह सुनकर शास्त्री सोचने लगे मुझे कितने दिन प्रभु के पास आते हुए हो गये लेकिन मैंने इन्हें पहचाना नहीं और बात को टालता रहा,वे लज्जित होकर शीघ्र ही कार्यक्रम बनाने में जुट गए।वैद्यजी ने धन और पण्डित सबका प्रबन्ध किया,अनुष्ठान प्रारम्भ हो गया।अनुष्ठान के मध्य में ही श्री सदाशिव स्वामी अनुष्ठान की सफलता की घोषणा कर दी।इस अनुष्ठान में त्रैलोक्य स्तम्भिनी भगवती बगलामुखी एवं भगवती धूमावती का आह्वान किया गया था।अनुष्ठान के दौरान जबकि अनुष्ठान प्रारंभ हुए करीब एक सप्ताह हुआ था श्री प्रभु ने अपने रात्री के एक स्वप्न का साधकजनों को विस्तृत विवरण दिया "रात्री को हमने स्वप्न में क्या देखा कि हम घूमते हुए उद्यान में पहुँचे जहाँ एक छोटा सा जलाशय भी है।समीप जाकर क्या देखते हैं,जलाशय के किनारे एक काले वर्ण की बुढिया बैठी है और उसके पास एक बालक भी खड़ा है।पास आने पर बुढिया अंग्रेजी में बोली "आई डोन्ट नो यू"।यह वचन सुनकर मैंने हाथ जोड़कर उसका अभिवादन किया,इतने में हमारी नींद टूट गई तब से हम यही सोच रहे हैं कि यह तो धूमावती देवी थी।हम हमेशा इनका स्मरण भी करते हैं फिर भी इन्होने यह क्यों कहा "आई डोन्ट नो यू" श्री महाराज के श्री मुख से यह शब्द बड़े ही प्यारे मालुम हुए।श्री स्वामी ने आगे कहा "मालुम होता है कि इस अनुष्ठान में हमने इनका योगदान नहीं लिया है शायद वे इसलिए असंतुष्ट हैं,हमें उनका भी योगदान इस अनुष्ठान में लेना होगा।फिर वैसा ही किया गया।भक्त गोपालदास जो वहाँ बैठे थे,श्री महाराज जी से आज्ञा माँगकर भगवती धूमावती के संस्मरण सुनाने लगे जो अनुष्ठान के समय में हुए थे।श्री प्रभु ने उनको आदेश दिया था कि भगवती धूमावती के चित्र से,जो दीपक के सामने स्थित है,यदि कोई अनुभव या मूक भाषा सुनाई दे तो वह तुरन्त आपको सुनाया जाए।ग्यारहवें दिन अर्धरात्री को आश्रम में निर्मित अखाड़े के पास एक भयानक तांत्रिक पशु की ध्वनि हुई।तुरन्त जाकर भक्तों द्वारा स्वामी जी को बताया गया और उन्होनें प्रसन्न मुद्रा में कहा आंरभ शुभ है जाओ अपना काम करो।पन्द्रहवें दिन चित्र से आदेश मिला मैं भूखी हूँ।यह भी प्रभु को बतलाया,तो उन्होनें पूरा विवरण सुनकर कहा,वह तो हमेशा भूखी रहती हैं,उनको बली देना अत्यन्त कठिन है।चावल,साबुत,उड़द,शुद्ध घी,गुड़ और दही सम्मिश्रण कर भोजन कराओ"।दूसरे दिन पुनःचित्र से संकेत मिला कि "भोजन पर्याप्त नहीं है,तब फिर श्री स्वामी की आज्ञा से घी चुपड़ी चार रोटी और बढा दी गई।अगली रात पुनः चित्र से संकेत मिला कि अभी जप कम हो रहा है,पाँच माला और बढाओ,तब उन्होनें पाँच माला का जप और बढाने का आदेश दिया।इक्कीसवें दिन जप करते हुए गोपालदास अर्धनिद्रित हो गए तभी भगवती धूमावती ने उनका हाथ पकड़ कर कहा,मेरे साथ मोटर में बैठकर चीन चलो।गोपालदास ने उत्तर में कहा कि,मैं अनुष्ठान कर रहा हूँ,अनुष्ठान छोड़कर मैं कैसे जा सकता हूँ,कृपा करके आप अकेली चली जाएँ।माता धूमावती कार में बैठ गयी,मोटर चलने की आवाज आयी और वे अदृश्य हो गयी।यह बात श्री प्रभु से कही,तो उन्होनें कहा,तुमने गलती की तुम्हें माँ के साथ जाना था,खैर!अब हमको जाना पड़ेगा।उसके दूसरी रात्री को जपकर्ताओं ने जप करते समय अर्धोन्मीलित नेत्रों से देखा कि भगवती धूमामाई चीनी सेना पर प्रहार कर रही है,परिणाम स्वरूप चीनी सेना में भगदड़ सी मच रही है और वह अपने देश को वापस जा रही हैं।बाद में पूर्णाहुति से पूर्व ही चीन ने युद्ध विराम की घोषणा कर दी।
 इन्हीं दिनों देवरिया के एक एक वकील साहब ने श्री स्वामी की आज्ञा से सन् १९६२ ई. में भगवती धूमावती के लिए एक छोटा सा मंदिर निर्मित करा दिया,क्योंकि माता धूमावती ने श्रीस्वामी से कहा "मैंने तुम्हारा काम किया हैं अब तुम भी मेरा काम करो" मेरा भी आश्रम में एक मंदिर बनवाओं,तब श्रीस्वामी ने माता धूमावती की प्रतिष्ठा कराकर भक्तों के लिए उनके दर्शन सुलभ बना दिया।श्रीस्वामी जी की एक शिष्या श्रीमती रेणु शर्मा नागपुर से गुरूदेव से मिलने आई,आकर प्रणाम कर बैठी ही थी कि एक कृशकाय वृद्धा श्वेत वस्त्र पहने और ललाट तक ओढनी ओढकर वहाँ आई।उसने आते ही स्वामी जी से प्रसाद देने के लिए निवेदन किया,प्रभु ने उस वृद्धा को प्रसाद दिया।प्रसाद लेकर वह मुड़कर वापस जाने लगी।वह कुछ ही कदम चली होगी कि श्री मुख से निकला "भगवती धूमावती प्रतिदिन एक बार यहाँ से प्रसाद लेने आती हैं"।उसी समय रेणु शर्मा ने पूछा,हे सर्वसाक्षी!अभी आप कह रहे थे कि धूमावती माता प्रसाद लेने आती हैं,अगर उनके आने का समय आप बता दें तो मैं उस समय आकर उनका दर्शन करूँ।आपने कहा उनके आने का कोई समय नहीं है,तभी रेणुशर्मा के मस्तिष्क में बिजली सी कौंधी कि यह बुढिया माता धूमावती तो नही थी और शीघ्रता से पलटकर पिछे की ओर देखा तो कोई भी नहीं था।रेणु शर्मा ने श्री स्वामी से पूछा कही यह बुढिया धूमावती माता तो नहीं थी,तो उन्होनें बहुत रहस्यमय वाणी में कहा ,हो सकता है,वो ही हो।

दतिया में नित्य कुछ समय के लिए भगवती धूमावती का दर्शन होता हैं,वैसे शनिवार को विशेष दर्शन होता है, भक्त लोग सफेद पुष्प के साथ नमकीन,मिक्चर के साथ,पुड़ी,पकौड़ा प्रसाद अर्पण कर माता की कृपा प्राप्त करते है।माता धूमावती विधवा रूप में है,इसलिये सौभाग्यवती स्त्री को दर्शन करने का निषेध हैं।महाविद्या में धूमावती का विशिष्ट महत्व है।जीवन में रोग,पीड़ा सभी को मर्माहत कर देता है।जीवन का शांत भाव से मनन किया जाय तो पता चलता है कि अंहकार,एवं मोह के कारण हम सत्य से दूर हो चूके है।"क्या चाहिए हमे"? शिव की उपासना करने से गुरू प्राप्त होते है तभी जीवन का रहस्य समझ में आता है।श्री करपात्री जी को मैसुर के राजा ने गंगा किनारे का अपना सैकड़ों एकड़ भूमि,महल के साथ दान कर दिया तब श्री करपात्री जी ने द्वारकापीठ के शंकराचार्य को बुलाकर उन्हें सारी संपति दे दी,यही संत,साधक का लक्षण है।श्रीसाई बाबा शिरडी वाले जीवन भर भक्तों के लिए सभी कुछ प्रदान किये,स्वयं के कुर्ता में पैंबद लगा रहा और उनका नाम बेचकर दुसरे ने अरबों कमा डाला।कौन सच्चा संत है यह तो हमे सोचना चाहिए।
 गुरू गोरखनाथ,अवधूत दतात्रेय,श्रीस्वामी,श्रीरामकृष्ण परमहंस,श्रीसाईबाबा,स्वामी समर्थ,तैलंग स्वामी,वामाखेपा,अघोरी कीनाराम ,आचार्य श्रीरामशर्मा ये सभी परम संत,साधक,तथा स्वयं परमतत्व ही है।आज नकली साधक,संत से बाजार पटा है,सभी सिद्ध बनते है परन्तु ये किसी काम के नही है कारण माता धूमावती ने सभी को मोह से ग्रसित कर दिया है।साधक को ज्यादा समय मिलता ही कहाँ जो शिविर लगाए,दीक्षा दे,ज्यादा भीड़ जुटाने वाले का लक्ष्य एक ही है कि मेरे भक्त ज्यादा लोग हो जाए और धनार्जन हो।दशमहाविद्या ब्रह्मविद्या है और इसके अधिपति शिव हैं।बिना शिव कृपा किसी को महाविद्या की साधना फलीभूत नहीं होती।मेरा मन जब तक कृपण है,गणितीय बुद्धि है तब तक साधना के क्षेत्र में प्रगति संभव नहीं हैं।ऐसी कोई समस्या नहीं है,जो धूमावती माता दूर न करे।भूख लगी हो उस समय शरीर का क्या हाल होता है,इसे कोई भी समझता है।शिव ने लीला की और परम प्रेमी पुरूष शिव को ही उदरस्थ कर लिया यह जीव के प्रति शिव का प्रेम ही है, तभी तो करूणा से भरी उग्र शक्ति धूमावती को हम बार बार नमस्कार करते है।माता हम सच्चे मन से आपको पकौड़ा,पकवान का भोग देकर आपकी स्तुति कर रहे है,हमारे,संतान,परिवार के साथ ही हमारे राष्ट की भी रक्षा करे,तभी तो दतिया में आप विराजमान है।आपकी जय हो,जय हो,जय हो।श्रीस्वामी सहित माता धूमावती को बार बार नमस्कार हैं।

Wednesday, June 22, 2011

"श्री गणेश":-(शिव शक्ति के प्यारे)

माता-पिता के लिए संतान ही सबकुछ होता है।सर्वोपरि और परम माता- पिता शिव-शक्ति है इन्हें हम प्रकृति और पूरूष कहते है ये निराकार एवं निर्गुण है परन्तु बिना साकार के हम आंनदित नहीं हो सकते।कारण हम स्वयं साकार है,पहले जो साकार की लीला देखेगा वही तो निराकार के रहस्य से परिचित होगा।इस प्रकृति और पूरूष का जो परम प्रेम है वह श्री गणेश है और षडानन श्री कार्तिकेय जी है।ये दोनो पुत्र सृष्टि मे बड़े प्यारे है।शिव तो शक्ति के हृदय में रहते है और शिव के हृदय में रूद्र रूप हनुमान भक्ति से पूर्णरुपेण चैतन्य विराज रहे है।
वही श्री हनुमान के हृदय में श्री सीताराम जी विराज रहे है जो साक्षात विष्णु है।ये आकाश तत्व में महाशुन्य है जो चराचर जगत में व्याप्त है यही आदि गणेश है।शक्ति के गोद मे दुलार,प्यार कौन पायेगा,वही जो सनातन माता- पिता का पुत्र होगा।शिव-शक्ति का प्रेम अमिट है तथा संसार के सभी जीव इन्हीं की संतान है लेकिन जब शक्ति ने अपने उबटन से एक शिशु की मूर्ति बनाकर प्राण-प्रतिष्ठा का मंत्र फूंका तो एक सुन्दर बालक के रूप में श्री गणेश प्रकट हुए।गणेश क्या है मंगलदाता,भाग्य-विधाता।कारण एक बार गुरू गोरखनाथ जी ने दत्तात्रेय जी से पूछा कि कौन मुक्त है,कौन बन्धन दुःख में है,कौन नष्ट होता है और कौन अजर अमर है?यदि यह प्रकट करने योग्य हो तो आप इस पर प्रकाश डालिये।दत्तात्रेय जी ने कहा कि ब्रह्म मुक्त है,और प्रकृति दुःख सहती है।यही अपार गुप्त ज्ञान है।प्रकृति अपने दुःख के निवारण के लिए ही श्री गणेश की उत्पति से अपने सारे संतानो की पीड़ा हरती है तभी तो ब्रह्म शिव भी पुत्र प्रेम में गणपति को गोद मे बिठाये भक्तों का कल्याण करते है।इसलिये मातृॠण से मुक्त होने के लिये सभी जीव को शक्ति उपासना करनी चाहिये और वहाँ प्रथम पूज्य श्री गणेश को प्रसन्न किये बिना शक्ति की कृपा प्राप्त नहीं होती।गणेश जी के आशीर्वाद के फलस्वरुप ही माता-पिता जीव पर सबसे ज्यादा करूणा बरसाते हैं।बुद्धि के दाता श्री गणेश का हमारे शरीर में आधार चक्र के पास निवास का यहीं कारण हैं कि शक्ति के साथ ये सदैव विराजमान है,शिव तो आज्ञा चक्र से सहस्त्रसार मे बैठे है वहाँ तक पहुँचना बहुत कठिन है और नीचे शक्ति अलसायी सोयी रहती है।जब श्री गणेश की कृपा साधक पर होती है तो वे माँ को जगाकर ऊपर भागते है,तो शक्ति पुत्र के पिछे भागती है।अब तो साधक का कल्याण होना निश्चित ही है कारण गणेश हँसते खिलखिलाते शिव के गोद में जाकर बैठ जाते है,जिससे माँ भी अपने पुत्र के मोह और प्रेम वश शिव के पास पहुँच वामभाग में विराज जाती हैं।तब जीव समाधि में जाकर उस परम तत्व माता पिता का दर्शन कर लेता हैं,ऐसे कृपालु हैं हमारे गणेश।जीवन में बहुत पीड़ा हैं जीव को पर गणेश हर उस पीड़ा से निकाल बाहर करते है पल में।कितने स्वरूप में है गणेश जी विराजमान और उनकी अनेकानेक लीलाएँ है तभी तो गणेश प्रथम पूज्य है।कितना भी साधना उपासना कर लिजिये लेकिन श्री गणेश जी के कृपा के बिना आगे बढ पाना सम्भव ही नहीं।जिस त्रिपुर सुन्दरी को एक बार देखने के लिए साधक पुरा जीवन साधना में समर्पित कर देता है उस माँ के गोद में गणेश हँसते खिलखिलाते माँ को मोह में बाँधे रहते हैं।आदि शंकराचार्य के समय की एक घटना है।एक सिद्ध माता का मंदिर बन्द था कारण वह प्राचीन तांत्रिक पीठ था तथा वहाँ शक्ति कुपित हो गई थी।उस समय कितने साधक मंदिर के अन्दर गये लेकिन बाहर कभी नहीं निकल पाये।तभी एकबार वहाँ शंकराचार्य जी पहुँच गये तथा एक गणेश मूर्ति को प्राणप्रतिष्ठा कर गणेश स्तोत्र का पाठ करते हुये अन्दर पहुँच गये,अब तो जैसे ही माँ शक्ति श्री गणेश को देखी प्रसन्न हो गई और हमेशा के लिये वह मंदिर खुल गया,ऐसे है हमारे श्री गणेश जी।पति पत्नि में चाहे मतभेद रहता हो,सारे रिश्ते कही न कही तनाव पैदा कर देते हो परन्तु संतान सभी को प्यारा है कारण संतान में जीव को गणेश,कार्तिक दिखाइ देते है।सारा व्रत,उपवास,पूजन लोग अपने संतान को सुखी रखने के लिये ही करते है। जीवन में सारा पूर्व अर्जित पुण्य प्रताप संतान के दुःख मिटाने में ही लग जाता है,ऐसा होता है माता पिता का प्रेम।माता पिता के उस प्रेम की लाज श्रीगणेश शिव-शक्ति के पास रखते है और सारी अशुभता को दूर कर मंगल प्रदान करते हैं।गणेश की उपासना मात्र से सृष्टि के सभी देवी देवता कृपा करते हैं।एक बार एक भक्त स्त्री अर्धपागल हो गई,कारण किसी देवी मंदिर में कुछ गलती के कारण ऐसा हो गया था।मैंने गणेश मंत्र के साथ गणेश यंत्र दे दिया,कुछ ही दिनों में स्त्री पुर्ण ठीक हो गई तथा माता ने स्वप्न में दर्शन देकर आशिर्वाद भी दिया।अगर गणेश नहीं होते तो इस सृष्टि का कार्य सुचारू रूप से नहीं चल पाता,इसलिये माता ने सभी जीव पर विशेष कृपा कर श्रीगणेश की उत्पति कर उन्हें गजानन बनाकर सृष्टि में प्रथम पूज्य बना दिया।गणेश शीघ्र प्रसन्न होकर,भक्त के सारे अमंगल को हर कर मंगल प्रदान करते है।अनेकानेक लीलाएँ है गजानन की, ये ग्रह दोष,या कोई बाधा तत्क्षण दूर कर भक्त की मनोकामना पूर्ण कर देते हैं।"आज मै यहाँ श्रीगणेश की स्तुति पाठ दे रहा हूँ।एक मोदक या बेसन के प्रसाद के साथ ११ दूर्वा और सिन्दूर अर्पण कर गणेश जी का एक बार भी पाठ कर लिया जाय तो विघ्नों का शमन होता है और जीवन के हर कार्य में सफलता मिलता रहता है निरंतर।"
 -:श्रीगणेश स्तुति:-
चतुर्भुजं रक्ततनुं त्रिनेम् पाशांकुशौ मोदकपात्र दन्तौ।करैर्दधानं सरसीरूहस्थं,गणाधिनाथं शशिचूडमीडे॥
गजाननं भूतगणादि सेवितं कपित्थ जम्बूफल चारूभक्षणम्।उमासुतं शोकविनाशकारकं,नमामि विघ्नेश्वर पादपंकजम्॥
अलिमण्डल मण्डित् गण्ड थलं तिलकीकृत कोमलचन्द्रकलम्।कर घात विदारित वैरिबलं,प्रणमामि गणाधिपतिं जटिलम्॥
खर्व स्थूलतनुं गजेन्द्रवदनं लम्बोदरं सुन्दरम्।प्रस्यन्दन्मदगन्धलुब्ध मधुपव्यालोल गण्डस्थलम्।दन्ताघात विदारितारि रूधिरैःसिंदूरशोभाकरं,वन्दे शैलसुता सुतं गणपतिं सिद्धिप्रदं कामदम्॥
नमो नमःसुरवर पूजितांघ्रये,नमो नमःनिरूपम मंगलात्मने।नमो नमःविपुल पदैक सिद्धयै,नमो नमः करिकलभाननाय ते॥
शुक्लाम्बरं धरं देवं,शशिवर्ण चतुर्भुजम्,प्रसन्न वदनं ध्यायेत,सर्वविघ्नोपशान्तये॥गणपतिर्विघ्नराजो लम्बतुण्डो गजाननः,मातुरश्च हेरम्ब एकदन्तो गणाधिपः॥
वक्रतुण्ड महाकाय कोटिसूर्य समप्रभः।निर्विघ्न कुरू मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा।सर्व विघ्न विनाशाय सर्व कल्याण हेतवे,पार्वती प्रियपुत्राय गणेशाय नमो नमः॥
प्रातःस्मरामि गणनाथमनाथ बन्धु,सिंदूरपूर्ण परिशोभित गण्ड युग्मम्,उद्दण्डविघ्नपरिखण्डन चण्ड दण्डमाखण्डलादि सुरनायक वृन्द वन्द्यम्॥
प्रातर्नमामि चतुरानन वन्द्यमानं,इच्छानुकूलमखिलं च वरं ददानम्।तं तुन्दिलं द्विरसनाधिपयज्ञसूत्रं,पुत्रं विलास चतुरै शिवयोःशिवाय॥
प्रातर्भजाम्यभयदं खलु भक्त शोकं,दावानलं गणविभुं वरकुञ्जरास्यम्।अज्ञान कानन विनाशन हव्यवाहमुत्साहवर्द्धनमहं सुतमीश्वरस्य॥
                                       
    -:द्वादश गणेश स्तुति:-
प्रणम्य शिरसा देवं,गौरीपुत्र विनायकम्।भक्तावासं स्मरेन्नित्यं आयुःकामार्थ सिद्धये॥प्रथमं वक्रतुण्ड च एकदन्तं द्वितीयकम।तृतीय कृष्णपिंगाक्षं गजवक्त्रं चतुर्थकम्॥
लम्बोदरं पञ्चमं च षष्ठं विकटमेव च।सप्तमं विघ्नराजं च धूम्रवर्ण तथाष्टकम्॥नवमं भालचन्द्रं च दशमं तु विनायकं।एकादशं गणपतिं,द्वादशं तु गजाननम्॥
द्वादशैतानि नामानि त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः।न च विघ्नभयं तस्य सर्वसिद्धिकरं प्रभो॥

रात्री के बारह बज रहे थे,माँ का जप हो रहा था।विरह वेदना से प्राण व्याकुल हो गये थे,तभी ध्यान में गणेश आ गये।वे मुस्कुरा रहे थे तभी मैंने ध्यान से उन्हें अलग कर खुद को माँ के चरणों पर केंद्रित करना चाहा पर लाख चाहने पर भी गणेश टस से मस नहीं हुये।"आखिर चाहते क्या हो गणेश" तभी गुरू जी ध्यान में आकर बोले.....।गणेश का जप कर मना लो माँ को,माँ गणेश जी के पिछे खड़ी है।अब मैं गणपति गणपति कह रोने लगा तभी श्रीगणेश ने अपना सूंड़ मेरे माथे पर रख दिया।आगे जो हुआ वह मै यहाँ बता नहीं सकता।हिन्दू धर्म में बिना गणेश जी की कृपा प्राप्त किये कुछ भी संभव नहीं है।
कार्तिक जी शिव के त्रिनेत्र के तेज से प्रकट हुये है।ये दक्षिण भारत के ईष्ट देवता है,वे अपने पिता शिव के प्रचार के साथ शिव तत्व की प्राप्ति में जीव को तल्लीन रखते है।ये शिव शक्ति के प्रिय पुत्र है।

Friday, June 10, 2011

श्री पीताम्बरा माई

    अध्यात्मिक विचार सत्य की ओर जाने का एक रास्ता है।भाव प्रेम की परकाष्टा के शिखर पर पहुँचने का सुलभ यात्रा है।सुन्दर विचार मन के पार आत्मा की गहराईयों से प्रकट होता है।योगी,ध्यानी या मंत्रज्ञ जब अध्यात्म की ओर बढता है तो बीच मे भोग की माया रचित प्रलोभनों मे उलझनें की ज्यादा संभावना बढ जाती है।मार्गदर्शक या गुरू सिद्ध हो तो उचित रास्ता निकाल देता है और रास्ता सुगम हो जाता है।                                                                                                                                                               


     

















आज विश्व की जो स्थिति है यह बहुत बड़े अंहकारी लोगो के कारण है।धर्म क्या है हमे पशुता से मुक्त कर मानव से महामानव बना दे पर धर्म को सही समझ जाने पर।धर्म प्रेम पथ की डगर है।हिन्दू धर्म की व्यापकता से परे जो पथ भष्ट्र हुए वे अर्थ का अनर्थ कर दिए।कृष्ण ने कहा कि देखो अधर्म मत करो पांडव तुम्हारे भाई है इन्हे इनका पूरा हिस्सा नही भी,तो थोड़ा दे दो ये गुजारा कर लेंगे परन्तु कौरव नही माने,अंत मे शांति दूत बन अपना दिव्य रूप दिखाया तो भी कोई फर्क नही पड़ा,कृष्ण परमात्मा है अंहकारो से भरे ये दुर्जन पर दया कर सुधरने,समझने का कई मौका देने के बाद अततःमहाविनाश करना पड़ा।शाक्त पंथ क्या कहता है,शक्ति की उपासना से अर्थ,भोग,काम,मोक्ष प्राप्त होता है पर शाक्त कौन? नाम और जाप करने से ही नही शंकर जैसा स्वभाव शिव जैसा भोलापन अन्दर ,बाहर दिखाई देने लगे तब हम शाक्त बन पाते है।खानपान से वैष्णव नही मन से वैष्णव होना जरूरी है तभी हम विष्णु को देख पायेगे।परमात्मा अन्दर है वही बाहर है परन्तु दिखाई देता नही कारण हमारी आँखो में उसे देखने की ललक होनी चाहिए।हिन्दू धर्म मे सभी एक दुसरे को छोटा समझ विवाद करते है यह कैसा धर्म है।इसाई हिन्दू को मूर्ख समझे वही इस्लाम हिन्दू को तो हिन्दू सभी को मूर्ख समझते ये कैसा धर्म है।यह धर्म नही बस दिखावा मात्र है कि हम धार्मिक है।आज के बाबा खूब प्रवचन देते है मतलब भीड़ जुटाकर पैर पुजवाना और अपना अनुवायी बनाना ये कब करते है ध्यान या जाप इनमें आत्म बल बहुत होता होगा।रामकृष्ण परमहंस तो रात दिन माँ काली के ध्यान पूजन मै रहते परन्तु सिद्ध होने के बाद ही जनकल्याण कर पाए,फिर भी अंतिम समय पुजारी पंडित साजीश कर दक्षिणेश्वर से निकाल दिए वही मूर्ख पंडित धर्म के ठिकेदार है,इसीलिये धर्म विकृत हो गया है।सिर्फ सोचने या सम्प्रदाय मे जुड़ जाने से कोई धर्म को प्राप्त नही कर सकता।बात उन दिनों की है जब माँ काली की साधना में आन्नद आ रहा था,तभी मुझे कभी कभी श्री बगलामुखी का स्मरण हो जाता कारण काली मंदिर मे लोगो के कल्याण हेतु औघड़ गुरू जी माँ बगला का अनुष्ठान कराते,उतने दिन तक माँ को फल मिष्टान,पुआ का भोग लगता तथा काली माँ को पीत वस्त्र पहनाया जाता तो मै देख सोचता हे माँ क्या तु ही सारे रूप धारण करती हो क्या मै तेरे बगला रूप की साधना कर पाउँगा।तंत्र मार्ग सहज नही है इस मार्ग मे गुरू और इष्ट के बिना सब व्यर्थ है। माँ के तरफ से संकेत मिला था लेकिन शीघ्रता से लिया गया मेरा फैसला अनिष्ट होते होते बचा।एक दिन घर के पूजा स्थान मे मैने बगला का पाठ एंव मंत्र का जप कर लिया ,मन बेचैन हो गया तभी शाम के वक्त एक विषधर नाग आंगन मे घुस गया और पूजा रूम के जंगला होते घर मे घुसने लगा तभी मेरी पत्नि पूजा रूम से नाग को रोकने लगी,नाग भी गुस्सा में छत्र खड़ाकर, लगता था कि काट खायेगा परन्तु मेरी पत्नि भी हाथ खड़ा कर दी उस समय मेरे दोनो पुत्र भी घर पर थे पर मै शहर मे था तभी मेरे पुत्र ने मुझे फोन किया मै शीघ्र घर आया तो वह भंयकर दृश्य देख सरसों अभिमंत्रित कर नाग पर फेंका और पत्नि को हटाया। नाग को किसी तरह बाहर किया गया,इस घटना के बाद मै उदास हो गया था कि माँ बगला की साधना शायद मै नही कर पाउँगा।एक माह बिता होगा कि ग्वालियर के एक भक्त ने मुझे अपने यहाँ बुलाएं मुझे खुशी हुई कि प्रथम बार श्रीस्वामी के पास माँ बगला का दर्शन होगा,माँ बगला का ही एक नाम पीताम्बरा है। जब प्रथम बार दतिया पहुँचा तो शरीर काँप रहा था भाव विहवल आँसु गिरता रहा तभी लगा कि माँ काली तथा गुरू जी साथ है,पीताम्बरा माई को देख माँ काली के श्याम वर्ण की छवि गौर वर्ण मे देख अपने आप को सम्पूर्णता से अर्पण किया।बहुत ऐसी घटनायें है लेकिन सभी बातो को बताना उचित नही है।पीताम्बरा की साधना बड़े बड़े पंडित, साधक मंच पर भाषण देने वाले लोग के बस की बात नही है ,जिसपर शिव,काली कृपा करे और सिद्ध गुरू मिले उसके लिए ये अंतिम साधना हो सकता है।माँ पीताम्बरा अपने भक्त को तकलीफ में देख नही पाती है कारण यह काली की ही एक रूप है।बगलामुखी की उत्पति की कथा  है कि पहले कृत युग में सारे संसार का नाश करने वाला भंयकर तूफान उपस्थित हुआ इससे सारे जीव त्राहीमाम करने लगे तब उसे देखकर भगवान विष्णु चिंतित होकर इस विनाश लीला से निपटने के लिए सौराष्ट्र देश में हरिद्रा सरोवर के समीप तपस्या करने लगे तब श्रीमहात्रिपुर सुंदरी प्रकट हुई,ये ही बगला रूप में प्रकट होकर उस भंयकर तूफान को क्षण मात्र में रोक दिया और वह भंयकर तुफान शांत हो गया।त्रैलोक्य स्तंभिनी ब्रह्मास्त्र रूपा श्रीविद्या की वैष्णव तेज से युक्त मंगलवार "वीर रात्री"चतुर्दशी को माँ बगलामुखी का आविर्भाव हुआ।इनकी अराधना करने वाला साधक सिद्ध हो जाता है।ये स्तंभन की शक्ति के साथ त्रिशक्ति कहलाती है,पृथ्वी,स्वर्ग,सारे लोक इनके प्रभाव से ठहरा है।दारिद्रय,वाद विवाद ,शत्रु,रोग,अचानक आपदा,भय,भुत पिशाच,तंत्र,ग्रह बाधा जीवन मे अनुकूलता सभी का शमन कर ये भोग के साथ मोक्ष प्रदान करती है।ये क्या नहीं कर सकती,ये परम करूणामयी माता है।बहुत सुसंस्कारित व्यक्ति ही इनकी साधना कर पाते है।एक बार की बात है एक बहुत ही सज्जन बैंक अधिकारी के मकान को कुछ बड़े अपराधी कब्जा कर लिए,पुलिस,नेता से पैरवी कराने के बाद भी वे मकान छोड़ने की बात तो दूर उन्हें भी धमकाते,अब वे सज्जन आत्महत्या पर उतारू हो गये तभी मेरे सम्पर्क मे आये,उनका मानसिक अवस्था देख मै उन्हे लेकर कब्जा वाले मकान पर जा पहुँचा।मेरे जाते ही १५,२० अपराधी घेर लिए वे बहुत कोध्र मे अशब्दों का प्रयोग करने लगे तभी मैंने माँ का स्मरण किया १० मीनट मे ही स्थिति उल्टी हो गई, वे सज्जन बन मेरा परिचय जानने लगे पर मैने बताया नही,सिर्फ इतना ही कहा कि जीवन मे कुछ गल्ती का दंड जब मिलने लगता है तो कोइ भी साथ नहीं देता आप सभी  घर खाली कर दे।माँ ने लगा सभी को पंगु और सज्जन बना दिया था,उसमे ऐसे अपराधी थे कि दान धर्म से दूर वे सिर्फ गलत कार्य ही करते थे,वे विन्रम होकर बोले कि १५ दिन का समय दे मकान खाली कर देंगे।मेरे शहर से १०० कोस दूर वे मुझे जानते भी नही थे।वे माँ के लीला को क्या जाने मेरा आवाभगत करने लगे तभी उसके एक मित्र जो वहाँ के बड़े अधिवक्ता थे आ गये,वे मुझे पहचानते थे,अब जब वे मुझे देख भावविभोर हो गये तो कहना ही क्या उन बैंक अधिकारी से माफी मांगने लगे और ५दिन में मकान खाली किए तथा किराया जो एक वर्ष का बाकी था वह भी दे दिए,ऐसा प्रभाव है माँ पीताम्बरा माई का।बगला परम शक्ति सिद्ध 
विद्या है इन्हें जनमानस के कष्ट देख साक्षात शिव को ही श्रीस्वामी के रूप मे दतिया में पीताम्बरा पीठ की स्थापना करनी पड़ी,उनके द्वारा रचित श्रीबगलामुखी रहस्य दुर्लभ हैं।इनके मंत्र जप से कुण्डिलिनी शक्ति जाग्रत होने लगता है।विश्व की सारी संयुक्त शक्ति मिलकर भी इन बगला शक्ति का मुकाबला नही कर सकते परन्तु दुर्भाग्य है हम लोगो का बगला के रहते भी हम असहाय है,कारण इनकी उपासना मे हमे सरल चित होना पड़ेगा।इनकी उपासना मे मंत्र जप क्रम पद्धति से करना पड़ता है,एक अक्षर से आगे ३६ अक्षर इनका मुख्य मंत्र है।कवच,स्तोत्र,न्यास अंग पूजा मे गुरूमंत्र,गणेश,मृत्युञ्जय मंत्र,गायत्री,बटुक भैरव,योगिनी,विडालिका यक्षिणी का पूजन जप होता है।इनके षोढान्यास साधक माता ,गुरू के अलावा किसी को प्रणाम नही कर सकते, कारण कोइ भी इनके प्रणाम करने से महापतन को प्राप्त हो सकता है।पीताम्बरा का साधक अगर सिद्ध हो गया तो शिव के समान हो जाता है।इनकी साधना करने से कोइ भी कामना शीघ्र पूर्ण हो जाता है।कई जन्मों के पुण्य प्रभाव जब एक साथ मिल जाए तो गुरू मिलते है और इनकी साधना हो पाती है। इन्हे सिद्ध विद्या कहा गया इस लिए कि ये अपने साधक को सारी गंदगी साफ कर शुद्ध बुद्ध बनाकर सिद्ध कर देती है।आज धर्म,उपासना में विशेष लोगो का रूझान बढा है वही छदम भेष बनाकर स्वयं,सिद्ध,गुरू बन रहे है तो एक बार दतिया पीताम्बरा माई के दर्शन कर आए लेकिन सरलचित होकर जाए वहाँ स्वामी,पीताम्बरा दोनो की कृपा मिलेगी।दशों महाविद्यायें करूणामयी है,उनके उग्र स्वभाव पर न जाए भक्त के लिए महामाई है लेकिन गलत लोगो पर भले ये दिखावटी क्रोध करती हो तथा दुष्टों के लिए तो कालरात्री है।अपने भक्त पर इनकी ऐसी दया है कि रक्षा के साथ कुल की भी रक्षा करती है साथ सभी कुछ खुद सम्हाल लेती है ये पीत वस्त्र धारण करती है।ये माँ त्रिपुरसुन्दरी है।सांख्यायन तंत्र में बहुत सारा प्रयोग है तथा मंत्र महावर्ण,तन्त्रसार में इनकी उपासना का विधान है परन्तु इस पृथ्वी पर एकमात्र श्री पीताम्बरा पीठ ही है जहाँ से शुद्ध रूप से विधि प्राप्त हो सकता है।इनके यंत्र पूजा का विधिवत आवरण पूजन सांगोपांग करना पड़ता है।माँ बगला के शिव मृत्युञ्जय है जो शस्त्र विहिन है अपने आठो हाथ के साथ माँ अमृतेश्वरी के साथ विराजमान है।शिव चार हाथ से दिव्य कलश से अपने उपर अमृत का अभिषेक कर रहे है,उनका यह इशारा है कि ये बगला शक्ति के साथ अमृत रूप मे चारों हाथ अर्थ,धर्म,काम,मोक्ष देने वाला है तथा नीचे का चार हाथ में दो में से एक हाथ की मुद्रा ज्ञान का प्रतीक है कि जीव तुमको ज्ञान हो गया कि तुम "मै ,ही, हूँ कोइ भेद नहीं तुम परमात्मा हो ये कैसे हुआ कारण मेरे एक हाथ में जप मालिका यानि पवित्र होकर जप करो,जपात् सिद्धि,जपात् सिद्धि,जप करने से तुम सिद्ध हो पाए तभी जाकर नीचे के दो हाथ से जीव को अमृत बांटो उसे भव रोग से मुक्त करो।जप में "ज"अक्षर जीव मे "ज"अक्षर जगत मे "ज"अक्षर जगदम्बा में "ज"अक्षर यानि जप से जगदम्बा  प्रसन्न होकर जगत में जीव को स्वरूप प्रदान करती है और जीव अष्टपाश से मुक्त होकर शिव बन जाता है।कुण्डिलिनी शक्ति नाभी के बहुत नीचे है तथा शिव सबसे उपर आज्ञा चक्र मे तथा सहस्त्रसार में है,बीच में कुण्डिलिनी के उपर श्रीगणेश,बह्मा,विष्णु,आत्मा,भूलोक कइ देवि,देवता कण्ठ में शक्ति आज्ञा चक्र में गुरू,शिव खड़े है और अंत मे परमात्मा शिव निराकार,साकार, विराजमान है ,वहाँ शक्ति ही ले जाती है तब शिव शक्ति एक हो जाते है उन्हें पीताम्बरा कहे या श्री स्वामी शिव। कुछ शेष नही रहता तभी तो श्री स्वामी ने सिद्धान्त रहस्य में कहा है कि "जो पराशक्ति समस्त जगत को चैतन्य प्रदान करके स्वरूप प्रदर्शित करने के योग्य बनाती है सत् चितआनन्द जिसका स्वरूप है ब्रह्मा,विष्णु,महेश भी जिसकी आशा करते है।जो दयामयी है अपनी सभी सन्तानों पर जिसकी अपार असीम कृपा हो रही है।जिसकी सहायता बिना ब्रह्म भी शव के तुल्य है।उसकी भक्ति मातृॠण से मुक्त होने के लिये सभी संसार को करनी चाहिए,ऐसी जगतमाता की भक्ति जोनहीं करता वास्तव में उसका बड़ा भारी दिर्भाग्य है,क्योंकि ऐश्वर्य,भक्ति,मुक्ति,ज्ञान,निश्रेयस आदि फलों की दाता वही है।